धातुएं Metals
धातु रासायनिक तत्वों का एक वर्ग है जिसमें उच्च पिघलने और क्वथनांक, अच्छी विद्युत और तापीय चालकता, और सकारात्मक आयनों (उद्धरण) बनाने के लिए इलेक्ट्रॉनों को खोने की क्षमता जैसी विशेषताएं होती हैं। वे आम तौर पर चमकदार और घने होते हैं, और उन्हें बिना तोड़े अलग-अलग आकार में मोड़ा, खींचा या चढ़ाया जा सकता है। वे गर्मी और बिजली के अच्छे संवाहक भी हैं। सबसे आम धातुओं में लोहा, एल्यूमीनियम, तांबा, सोना, चांदी और सीसा शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, संक्रमण धातुएँ भी हैं, जिनकी विशेषता एक से अधिक ऑक्सीकरण अवस्थाएँ हैं, और भारी धातुएँ, जो विषाक्त हैं और जिनका परमाणु भार अधिक है।
प्राचीन काल में मानव को केवल 8 धातुओं के बारे में ज्ञान था। ये धातुएं हैं- सोना, चांदी, तांबा, तीन, सीसा, लोहा, पारा तथा एन्टीमनी। 18वीं शताब्दी के अंत तक रासायनिक शास्त्रियों ने लगभग 20 धात्वीय तत्वों की खोज कर ली थी। सन 18६९ में मैंडलीफ ने एक आवर्त सरणी बनाई जिसमें लगभग 50 तत्व थे।
आज हम लगभग 80 धातुओं को जानते हैं।
1. धातुएँ आघातवर्ध्य होती है। इसका अर्थ है कि उन्हें हथौड़े से पीटकर बहुत पतली चादरों के रूप में ढाला जा सकता है। सोना तथा चांदी सबसे अधिक आघातवर्ध्य धातुएँ हैं। हथौड़े से पीट-पीट कर इनके कागज से कहीं अधिक पलते वर्क बनाये जा सकते हैं।
तन्यता धातुओं का एक और अन्य लाक्षणिक गुण है। समस्त धातुएँ समान रूप से तन्य नहीं होती है। बहुत ही अधिक तन्य धातु, जैसे चांदी के 100 मिलीग्राम द्रव्यमान से 200 मीटर लम्बा तार बनाया जा सकता है।
2. ऊष्मीय एवं वैद्युत चालकता समस्त धातुएँ ऊष्मा की चालक हैं। चांदी ऊष्मता की सर्वोत्तम चालक है। धातुओं में सबसे कम चालक सीसा है।
धातुओं का एक और सामन्य गुण वैद्युत चालकता है। वे विद्युत प्रवाह में बहुत ही कम प्रतिरोध उत्पन्न करती हैं।
अत: उच्च वैद्युत चालकता दर्शाती हैं। विद्युत धारा के सर्वोत्तम चालक चांदी तथा तांबा हैं। इसके पश्चात् विद्युत चालकता में क्रमश: सोना, एलुमीनियम तथा टंग्स्टन का स्थान आता है। पारा तथा लोहा विद्युत धारा के प्रवाह में अपेक्षाकृत अधिक प्रतिरोध उत्पन्न करते हैं।
डच भौतिक शास्त्री, एच कामरलिंग ओनेस जब निम्न ताप पर पारे का विद्युत प्रतिरोध माप रहे थे तो उन्हें यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ कि 4.2 K ताप पर पारे का प्रतिरोध लुप्त हो गया। इस ताप तक ठण्डे किये गये पारे के किसी वलय में कोई विद्युत धारा प्रवाहित करने पर यह देखा गया कि धारा बिना किसी क्षय के दीर्घ अवधि तक प्रवाहित होती रही। धातुओं के विद्युत प्रतिरोध के इस प्रकार लुप्त होने की घटना को अति चालकता कहते हैं और ऐसी धातुओं को अति चालक कहते हैं। आज तक 23 धातुओं में यह गुण पाया जा चुका है। इनमें से प्रत्येक धातु किसी विशेष ताप पर अति चालक के गुण प्रदर्शित करती है। इस ताप को संक्रमण ताप कहते हैं। कुछ धातुओं के संक्रमण ताप इस प्रकार हैं: जिंक के लिए 0.79 I, सीसे के लिए 7.26 Iए, बेनेडियम के लिए 4.3 Iए, नियोबियम के लिये 9.22। |
रासायनिक गुण
धातुएं अपने इलेक्ट्रॉनों को खोकर धनात्मक आबंध बनाती हैं। अत: ये विद्युत धनात्मक तत्व हैं। आयनीकरण का यह गुण धातुओं को कुछ लाक्षणिक रासायनिक गुण प्रदान करता है।
ऑकसीजन के साथ अभिक्रिया
समस्त धातुएँ ऑक्सीजन के साथ संयोग कर धात्वीय ऑक्साइड बनाती हैं। धातुओं के परमाणु शिथिल आबन्ध वाले इलेक्ट्रॉनों को आसानी से खो देते हैं तथा धातु का धनात्मक आयन बनाते हैं। इसके विपरीत ऑक्सीजन के परमाणु, अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन प्राप्त करते हैं तथा ऋणात्मक ऑक्साइड आयन बनाते हैं।
Mg → Mg+2 + 2e‑
O+ 2e–→ O2-
Mg+ O → MgO
धातु के ऑक्साइड की प्रकृति क्षारीय होती है। इसमें से कुछ पानी में घुलने पर क्षार बनाते हैं।
Na2O + H2O → 2NaOH
यद्यपि समस्त धातुएँ ऑक्सीजन के साथ अभिक्रिया करती हैं, तथापि उनकी अभिक्रियाशीलता भिन्न-भिन्न हैं। कुछ धातुएँ, जैसे सोडियम तथा पोटेशियम, ऑक्सीजन के साथ प्रबल अभिक्रिया करती हैं। यदि इनको केवल हवा में खुला छोड़ दिया जाय तो भी यह आग पकड़ लेती हैं। ऑक्सीजन से संयोग करने के लिए मैग्नीशियम को पहले गर्म करना आवश्यक है। एक बार दहन तक गर्म करने के बाद मैग्नीशियम रिबन जल उठता है तथा उच्च मात्रा में ऊष्मा एवं प्रकाश उत्पन्न करता है। ऑक्सीजन की तांबे के साथ अभिक्रिया अपेक्षाकृत मन्द गति से होती है। इस अभिक्रिया को सम्पन्न करने हेतु बहुत अधिक ऊष्मा उपलब्ध करना आवश्यक है। अत: तांबा, ऑक्सीजन के प्रति कम अभिक्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
ऐसी धारणा है कि भूपर्पटी में अयस्क भूमिगत मैग्मा से आये हैं। पृथ्वी में वर्तमान की तुलना में भूतकाल में कहीं अधिक रेडियो एक्टिव पदार्थ थे। रेडियो एक्टिव क्षय के कारण पृथ्वी के अन्दर अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न हुई जिसके कारण समय-समय पर अनेक ज्वालामुखी फट पड़े। लावा अपने साथ धातुओं को भूपर्पटी तक ले आया। जो लावा सतह पर आया, शीघ्र ही ठंडा हो गया और उसमें अयस्क मिलने की संभावना यह यदा-कदा ही होती है। जबकि जो मैग्मा भूपर्पटी के नीचे ही रहा और धीरे-धीरे ठण्डा हुआ वह खनिजों का सम्पन्न स्रोत है। धीरे-धीरे ठण्डा होने के कारण ही उसमें विभिन्न अयस्क पृथक हो गये।
अभिक्रियाशीलता क्रम में धातुएँ | |
1. K (पोटेशियम) | 2. Ba (बेरियम) |
3. Ca (कैल्सियम) | 4. Na (सोडियम) |
5. Mg (मैग्नीशियम) | 6. Al(एलुमीनियम) |
7. Zn (जिंक) | 8. Fe (लोहा) |
9. Ni (निकिल) | 10. Sn (टिन) |
11. Pb (सीसा) | 12. H (हाइड्रोजन) |
13. Cu (तांबा) | 14. Hg (पारा) |
15. Ag (चांदी) | 16. Au (सोना) |
अभिक्रियाशीलता क्रम में बाद में आने वाली धातुएँ सबसे कम अभिक्रियाशील हैं। वे बहुधा प्रकृति में स्वतंत्र अवस्था में पाई जाती हैं।
धातुओं की उपस्थिति
अधिकांश धातुएँ, धातुयुक्त पदार्थों के रूप में मिलती हैं जिन्हें खनिज कहते हैं। जिन खनिजों से धातुएं लाभदायक रूप से प्राप्त की जा सकती हैं उनको अयस्क कहते हैं। सोना, चाँदी, तांबा, प्लेटिनम तथा विस्मथ उनकी कम अभिक्रियाशीलता के कारण स्वतंत्र अवस्था में पाए जाते हैं।
एलुमीनियम भूपर्पटी पर सबसे अधिक पाई जाने वाली धातु है। इसके बाद क्रमश: लोहा, कैल्सियम, सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम तथा टाइटेनियम पाये जाते हैं। अन्य सभी धातुएँ बहुत थोड़ी मात्रा में पाई जाती हैं।
धात्विकी
धातुओं के उनके अयस्कों के निष्कर्षण तथा उनको उपयोग हेतु विशुद्ध करने को धात्विकी कहते हैं। धात्विकी की प्रक्रियायें मुख्यतः तीन चरणों में होती हैं।
प्रारंभिक उपचार
प्रारंभिक उपचार के अन्तर्गत किसी अयस्क में से वांछित अयस्कों का सान्द्रण तथा बाद के उपचार हेतु खनिजों को उपयुक्त रूपों में रूपान्तरित करने की प्रक्रिया को सम्मिलित किया जाता है। पृथ्वी से निकाले गए अयस्कों में बहुधा अवांछनीय पदार्थ होते हैं जिन्हें गैंग कहते हैं। निष्कर्षण प्रक्रिया के पूर्व ही गैंग को हटा देना अनिवार्य है। गैंग को हटाने की विधि, अयस्क एवं गैंग के भौतिक या रासायनिक गुणों के अन्तर पर आधारित हो सकती है। भौतिक विधियों में से एक है कुटे हुए अयस्क को पानी की धारा में धोना । इस पृथक्करण में हल्के गैंग कण बह जाते हैं जबकि भारी खनिज कण तली में बैठ जाते हैं। इसको द्रवचालित धोना कहते हैं।
उपचार की एक अन्य विधि को फेन प्लवन कहते हैं। इस विधि का उपयोग कुछ अयस्कों विशेषकर तांबा, सीसा तथा जिंक के सल्फाइडों के सान्द्रण में किया जाता है। इस प्रक्रिया में महीन पिसे हुये अयस्क को जल एवं किसी उपयुक्त तेल के साथ एक बड़े टैंक में मिला दिया जाता है। खनिज कण पहले ही तेल से भीग जाते हैं, जबकि गैग के कण पानी से भीग जाते हैं। इसके बाद मिश्रण में से बुलबुलों के रूप में वायु प्रवाहित की जाती है।
परिणामस्वरूप खनिज कण युक्त तेल के झाग बन जाते हैं, जो जल की सतह पर तैरने लगते हैं तथा इसे बड़ी सरलता से ऊपर से निकाला जा सकता है।
खनिज मैग्नेटाइट का समृद्धीकरण, इसके चुम्बकीय गुणों का उपयोग करके किया जाता है। सबसे पहले अयस्क को कूटा जाता है फिर इसके निकट विद्युत् चुम्बक ले जाते हैं, जो खनिज कणों को आकर्षित करते हैं तथा गैंग के कण पृथक हो जाते हैं।
इसके विपरीत रासायनिक पृथक्करण में खनिज तथा गैंग के मध्य रासायनिक गुणों के अन्तर का उपयोग करते हैं। इस तरह का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बेयर की विधि है जिससे बॉक्साइड अयस्क में से शुद्ध एल्युमीनियम ऑक्साइड प्राप्त किया जाता है, इस विधि में अयस्क को गर्म सोडियम हाइड्रॉक्साइड के पास उपचयित किया जाता है, जो जल में घुलनशील है। गैंग को छानकर पृथक कर दिया जाता है। एल्युमीनियम का अवक्षेपण एलुमीनियम हाइड्रोक्साइड के रूप में प्राप्त छनित्र की अम्ल से अभिक्रिया द्वारा किया जाता है। तत्पश्चात् एल्युमीनियम हाइड्रोक्साइड को गर्म करके शुद्ध एल्युमीनियम आक्साइड प्राप्त कर लिया जाता है।
AL2O3 + 2NaOH → 2NaAlO2 + H2O
NaAIO2 + HCl +H2O → Al(OH)2 + NaCl
2Al(OH), → गर्म करने पर → Аl2O3 + 3H2O
सांद्रण के उपरान्त कुछ अयस्कों का भर्जन आवश्यक है। इसका कारण यह है कि कुछ धातुओं को उनके सल्फाइडों या कार्बोनेटों की तुलना में उनके ऑक्साइडों से प्राप्त करना अधिक सरल है। इसलिए एल्फाइड एवं कार्बोनेट अयस्कों को वायु में भर्जित करके ऑक्साइडों में परिवर्तित कर दिया जाता है। भर्जित करने की प्रक्रिया में रासायनिक अभिक्रिया को इस प्रकार लिखा जा सकता है
2ZnS + 3O2 → 2ZnO +2SO2
ZnCO3 → ZnO + CO2
अपचयन
अपचयन, धातुओं को उनके यौगिकों से प्राप्त करने की प्रक्रिया है। धातुओं को अपचयित करने की तीन मुख्य विधियाँ हैं अभिक्रियाशीलता श्रेणी में नीचे आने वाली धातुओं को, उनके यौगिकों को केवल गर्म करके प्राप्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, पारे को उसके अयस्क सिनबार को वायु में भर्जित करके प्राप्त किया जाता है।
HgS + O2 → Hg+ SO2
अभिक्रियाशीलता श्रेणी के मध्य में, आने वाली लोहा, जिंक, निकिल, टिन आदि जैसी धातुओं को, उनके यौगिकों को केवल गर्म करके प्राप्त किया जा सकता है। उनको किसी अपचयन एजेंट के साथ गर्म करना आवश्यक है। सामान्यतः कार्बन को अपचयन एजेंट के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जब धातु के ऑक्साइड को कार्बन के साथ गर्म करते हैं, तब धातु ऑक्सीजन से मुक्त हो जाती है।
MO + C → M + CO2
यहां M कोई धातु है।
अति अभिक्रियाशील धातुएं जैसे सोडियम, कैल्सियम, एल्युमिनियम भी अपचयन अभिकर्ता के रूप में उपयोग की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए मैंगनीज ऑक्साइड, एलुमीनियम के द्वारा मैंगनीज में अपचयित हो जाती है।
3MNO3 + 4Al → 3Mn + 2Al2O2
ऐसी अभिक्रियाएँ उच्च ऊष्माक्षेपी होती हैं। अत: इनमें धातुएँ द्रव अवस्था में प्राप्त होती हैं। इन अभिक्रियाओं का उपयोग वेल्डिंग करने में किया जा सकता है। वास्तव में फैरिक ऑक्साइड की एल्युमीनियम के साथ अभिक्रिया को रेल लाइनों तथा मशीनों के किसी भाग में दरारों को जोड़ने में किया जाता है।
अभिक्रियाशीलता श्रेणी में सबसे ऊपर स्थिर धातुओं को उनके यौगिकों को गर्म करके अथवा कार्बन द्वारा अपचयित करके प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्हें वैद्युत अपचयन द्वारा प्राप्त किया जाता है। सोडियम तथा मैग्नीशियम को उनके क्लोराइड के गलित द्रव्यमान के विद्युत-अपघटन द्वारा प्राप्त किया जाता है। क्लोरीन गैस एनोड पर मुक्त होती है जबकि धातु कैथोड पर जमा हो जाती है।
परिष्करण
धातुओं का परिष्करण उनका शुद्धिकरण है। भिन्न-भिन्न धातुओं के परिष्करण के लिये भिन्न-भिन्न अभिक्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं। धातुओं के विशुद्धिकरण हेतु वैद्युत परिष्करण बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होता है। तांबा, टिन, सीसा, सोना, जिंक, क्रोमियम तथा निकिल जैसी अनेक धातुओं का परिष्करण वैद्युत-अपघटन द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में अशुद्ध धातु को एनोड के रूप में उपयोग किया जाता है। शुद्ध धातु की पट्टी का कैथोड के रूप में तथा धातु के किसी लवण के घोल का वैद्युत अपघट्य के रूप में उपयोग होता है। जब वैद्युत अपघट्य में से धारा प्रवाहित की जाती है, तब धातु कैथोड पर जमा हो जाती है। तांबे के लिये वैद्युत अपघट्य के रूप में कॉपर सल्फेट का उपयोग होता है तथा शुद्ध तांबे की छड़ का कैथोड के रूप में उपयोग होता है। अशुद्ध तांबे के ऐनोड में उपस्थित अधिक अभिक्रियाशील धातुएँ जैसे लोहा अपघट्य के घोल में पहुंच जाती हैं और वहीं रह जाती हैं कम अभिक्रियाशील धातुएं जैसे सोना तथा चांदी, विद्युत अपघटनी सैल की तली में गिर जाती हैं जहां से वे प्राकृतिक अवस्था में पुनः प्राप्त कर ली जाती हैं। अत: वैद्युत परिष्करण न केवल धातु को शुद्ध करता है, बल्कि अन्य अमूल्य धातुओं को पुनः प्राप्त करने में भी सहायता करता है।
अपरिष्कृत टिन, सीसा तथा विस्मथ का शुद्धिकरण गलनिक पृथक्करण की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। इस प्रक्रिया में ढलानयुक्त भट्टी का उपयोग है: भट्टी का ताप धातु के गलनांक बिन्दु से थोड़ा अधिक रखा जाता है तथा अशुद्ध धातु को भट्टी के सबसे ऊपरी सिरे पर रख दिया जाता है। धातु तो पिघल कर नीचे बह जाती है, जबकि ठोस अशुद्धियां पीछे छूट जाती हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि सभी धातुओं के लिए इन सभी विधियों का उपयोग हो। अयस्क तथा उसमें उपस्थित अशुद्धियों के रासायनिक संयोजन के आधार पर विभिन्न विधियों का चुनाव करना आवश्यक है।
तांबा
तांबे का अयस्क हमें मुख्यत: सल्फाइड के रूप में प्राप्त होता है जो चट्टनों में विभिन्न पदार्थों के साथ वितरित रहता है। अत: अयस्क को भट्टी में ले जाने से पूर्व उसको प्रसाधन अर्थात् ड्रेसिंग अथवा संवर्धन की आवश्यकता होती है। अयस्क की ड्रेसिंग फेन प्लवन विधि द्वारा की जाती है जिसमें कॉपर सल्फाइड युक्त फेन को अलग कर लिया जाता है तथा फिर उनको भर्जित किया जाता है। भर्जन के दौरान CuS का कुछ भाग CuO में परिवर्तित हो जाता है जैसाकि निम्नलिखित अभिक्रिया में दर्शाया गया है –
2CuS + 3O2 → 2CuO + 2SO2
कुछ समय पश्चात् वायु की सप्लाई रोक दी जाती है। वायु की अनुपस्थिति में भट्टी में निम्नलिखित होती रासायनिक क्रिया होती है-
CuS + 2CuO → Cu +SO2
इस प्रकार बना हुआ तांबा द्रव अवस्था में होता है। चूंकि बाहर निकालने में सल्फर डाइऑक्साइड गैस द्रव ताम्बे से होकर गुजरती है, अतः तांबे की सतह पर फफोलों के समान कुछ संरचनाएँ उभर आती हैं। ऐसे तांबे को फफोलेदार तांबा कहते हैं। शुद्ध तांबा वैद्युत-परिष्करण द्वारा प्राप्त किया जाता है।
लोहा
लोहे के अधिकांश अयस्क, जिनका हम आजकल उपयोग करते हैं, लोहे के ऑक्साइड तथा सिलिकान डाइऑक्साइड के मिश्रण के रूप में पाये जाते हैं। लोहे के अयस्क से लोहा प्राप्त करने हेतु दो परिस्थितियों की आवश्यकता होती है जिनमें से एक है लोहे के ऑक्साइड का लोहे में अपचयन करने के लिये किसी उपयुक्त अपचायक की उपस्थिति तथा दूसरा किसी ऐसे उपयुक्त विलायक की उपस्थिति जो सिलिकान डाइऑक्साइड को घोल सके। कार्बन मोनोऑक्साइड अपचायक के रूप में उपयोग होती है, जिसे कोक को अपर्याप्त ऑक्सीजन की उपस्थिति में जलाकर प्राप्त किया जाता है। सिलिकन डाइऑक्साइड का पृथक्करण पिघले हुए कैल्सियम ऑक्साइड का उपयोग करके किया जाता है। इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये लोहे के अयस्क, चूने के पत्थर तथा कोक को एक भट्टी में एक साथ रख दिया जाता हैं अत्यधिक ऊष्मा के कारण भट्टी में चूने का पत्थर विघटित हो जाता है।
CaCO2 → CaO + CSO2
कैल्सियम ऑक्साइड, सिलिकन डाइऑक्साइड के साथ अभिक्रिया करके द्रव कैल्सियम सिलिकेट बनाता है।
CaO + SiO2 → CaSiSO2
इस प्रकार प्राप्त सिलिकन ऑक्साइड से मुक्त लोहे के ऑक्साइड का निम्नलिखित अभिक्रिया द्वारा अपचयन हो जाता है-
2C + O2 → 2CO
Fe2O3 + 3CO → 2Fe + 3 CSO2
यह रोचक तथ्य याद रखने योग्य है कि कैल्सियम सिलिकेट के बनने से न केवल अवांछनीय सिलिकान डाइऑक्साइड पृथक हो जाती है वरन् इससे उसी समय उत्पन्न लोहा भी ऑक्सीजन के संपर्क में नहीं आ पाता। कैल्सियम सिलिकेट, गलित लोहे की अपेक्षा हल्का होता है। अत: उसी समय बने गलित लोहे के ऊपर तैरने लगता है। यदि ऐसा न होता तो लोहा ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है।
ऊपर वर्णित प्रक्रिया को एक विशाल भट्टी में संपन्न किया जाता है जिसे वात्य भट्टी कहते हैं। यह पेंदे के पास संकरी होती है, मध्य में अधिक चौड़ी होती है तथा ऊपरी सिरे पर फिर संकरी होती है। किसी एक वात्य भट्टी से प्रतिदिन 3000 से 6000 टन तक लोहा उत्पन्न किया जा सकता है। एक बार प्रारंभ होने के बाद वात्या-भट्टी लगातार पाँच वर्ष तक चलती रहती है। भारत में लोहे का निष्कर्षण भिलाई, दुर्गापुर, राउरकेला तथा जमशेदपुर में किया जाता है।
एल्यूमीनियम
यद्यपि भूपर्पटी में एल्युमीनियम विशाल मात्रा में विद्यमान है फिर भी इसका व्यापक पैमाने पर उपयोग उन्नीसवीं शताब्दी में अन्त में ही प्रारम्भ हुआ। इसका सर्वप्रथम पृथक्करण 1827 में हुआ था। इसके गुण इतने आकर्षक थे कि अनेक देशों के वैज्ञानिकों ने इसके उत्पादन हेतु व्यापारिक विधियां विकसित करने का प्रयास किया। फिर भी, 1886 तक यह एक मूल्यवान धातु मानी जाती रही। जब फ्रांस में हेरोल्ट तथा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में हॉल ने स्वतंत्रतापूर्वक एल्युमीनियम को निष्कर्षण की प्रक्रिया विकसित की, तब से आज तक एल्युमीनियम के उत्पादन की दर आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई हैं।
एल्युमीनियम, बॉक्साइड से निकाला जाता है, जिसमें एलुमिनियम ऑक्साइड होता है। एलुमीनियम ऑक्साइड को विशेष प्रकार के वैद्युत-अपघटनी सेल में एल्युमिनियम में अपचयित किया जाता है। सेल की कोक से बनी आंतरिक परत कैथोड के रूप में तथा कार्बन रॉड एनोड के रूप में कार्य करती है।
एल्यूमीनियम के व्यवहारिक उपयोग
- एल्यूमीनियम के पाउडर और अलसी के तेल से बना पेंट लोहा इस्पात तथा पाइपों के रंगने के काम आता है।
- एल्यूमीनियम का प्रयोग क्रोमियम एवं मैगनीज धातु के निष्कर्षण में भी किया जाता है।
- एल्यूमीनियम चूर्ण एवं एल्यूमीनियम नाइट्रेट का मिश्रण (अमोनल) बमों में प्रयोग किया जाता है।
Metals are a class of chemical elements that have characteristics such as high melting and boiling points, good electrical and thermal conductivity, and the ability to lose electrons to form positive ions (cations). They are typically shiny and dense, and they can be bent, stretched, or pounded into different shapes without breaking. They are also good conductors of heat and electricity. The most common metals include iron, aluminum, copper, gold, silver, and lead. Additionally, there are also transition metals, which are characterized by having more than one possible oxidation state, and heavy metals, which are toxic and have a high atomic weight.