कोशिका विभाजन Cell Division

1855 ई. में सर्वप्रथम वर्चों (Virchow) महोदय ने स्पष्ट किया कि नवीन कोशिकाओं का जन्म पहले से विद्यमान कोशिकाओं से होता है। कोशिका विभाजन का प्रमुख कार्य एक कोशिका से अनेक संतति कोशिकाओं (Daughter Cells) को जन्म देना है। ये कोशिकाएँ मानव तथा अन्य प्राणियों में शारीरिक वृद्धि, क्षतिग्रस्त ऊतकों के पुनरुत्पादन, नवीन अंगों की वृद्धि एवं लैंगिक-अलैंगिक जनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सामान्यतया कोशिका विभाजन दो प्रकार के देखने को मिलते हैं जिन्हें समसूत्री विभाजन (Mitosis) एवं अर्द्धसूत्री विभाजन (Meiosis) के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य कोशिका विभाजन भी पाया जाता है जिसे असूत्री विभाजन (Amitosis) कहते हैं।

  1. असूत्री कोशिका विभाजन (Amitosis): यह विभाजन आदिम जीवों, जीवाणु, कवक, प्रोटोजोआ, शैवाल आदि में देखा जाता है। इसे प्रत्यक्ष केन्द्रक विभाजन भी कहा जाता है। इसमें केन्द्रक पहले लम्बा हो जाता है फिर सीधा दो भागों में विभाजित होकर अलग हो जाता है। प्रत्येक भाग में एक संतति केन्द्रक पहुँचता है।
  2. समसूत्री विभाजन (Mitosis): इसे परोक्ष कोशिका विभाजन भी कहा जाता है। माइटोसिस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1882 ई. में वाल्थर फ्लोमिंग महोदय द्वारा किया गया। उन्होंने ही कोशिका विभाजन का नाम माइटोसिस (Mitosis) रखा जिसका अर्थ है- धागे की तरह निर्माण (Thread like formation)। वास्तव में माइटोसिस का अर्थ केन्द्रक का विभाजन है, परन्तु व्यावहारिक रूप में यह शब्द केंद्रक और कोशिकाद्रव्य दोनों के विभाजन के लिए इस्तेमाल होता है। इस प्रकार का कोशिका विभाजन शरीर की कायिक कोशिकाओं में होता है। इस प्रकार के विभाजन में मातृ कोशिका (Mother cell) विभाजित होकर दो समान नई संतति कोशिकाएँ (Daughter cells) बनाती है। समसूत्री कोशिका विभाजन एक निरन्तर प्रक्रिया है। समसूत्री विभाजन एक जटिल प्रक्रम है जो कई चरणों या अवस्थाओं में सम्पन्न होता है। अध्ययन की सुगमता के लिए समसूत्री विभाजन की पाँच चरणों या अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है-

(i) विश्रमावस्था या इंटरफेज (Restingstage or Interphase): समसूत्री विभाजन शुरू होने से पहले प्रत्येक कोशिका विश्रामावस्था में होती है। इस अवस्था में कोशिका के जलयोजित (Hydrated) होने के कारण गुणसूत्र स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं पड़ते हैं। इस अवस्था में केन्द्रक-जाल (Chromatin network) केन्द्रक द्रव्य में विसरित (diffused) रहता है, परन्तु धीरे-धीरे यह केन्द्रक-जाल स्पष्ट होने लगता है।

(ii) प्रोफेज (Prophase): समसूत्री विभाजन के प्रारम्भ होते ही कोशिका में निर्जलीकरण शुरू होने लगता है। इसके परिणामस्वरूप कोशिका और तत्पश्चात क्रोमेटिन जाल भी स्पष्ट नजर आने लगते हैं। इसके पश्चात क्रोमेटिन जाल के धागे टूटकर अनेक छोटे-छोटे टुकड़ों में परिवर्तित हो। जाते हैं। ये टुकड़े गुणसूत्र (Chromosomes) होते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र पर दानेदार रचनाएँ दिखायी पड़ती हैं जिन्हें क्रोमोमीयर (Chromomere) कहते हैं। प्रारम्भ में गुणसूत्र थोड़े लम्बे होते हैं। प्रत्येक जीव की कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित होती है। प्रत्येक गुणसूत्र में एक विशिष्ट स्थान होता है, जिसे सेन्ट्रीमीयर (Centromere) कहते हैं। इसके पश्चात् गुणसूत्रों की लम्बाई में दो अर्द्धभागों में विभाजन होता है, परन्तु दोनों अर्द्धभाग एक दूसरे से सेन्ट्रोमीयर पर जुड़े रहते हैं। प्रत्येक अर्द्धभाग को अर्द्धगुणसूत्र या क्रोमेटिङ (Chromatids) कहते हैं। जंतु कोशिका में तारककाय (Centrosome) दो भागों में विभाजित होकर कोशिका के दोनों ध्रुवों (Poles) पर खिसक जाते हैं। प्रत्येक तारककाय के चारों ओर अनेक तारकरश्मियां (Astral rays) निकलती हैं। दोनों तारककायों के बीच के कोशिकाद्रव्य में कुछ परिवर्तन होता है। इसके फलस्वरूप दोनों तारककायों के बीच तकुंधागों (spindle Fibres) का निर्माण होता है। इसके पश्चात् गुणसूत्र सिकुड़कर छोटे एवं मोटे हो जाते हैं। पादप कोशिकाओं में तकुं धागे तो बनते हैं परन्तु तारककाय नहीं पाये जाते हैं। धीरे-धीरे केन्द्रक झिल्ली गायब (Disappear) होने लगती है और गुणसूत्र कोशिका के मध्य में आ जाते हैं। केन्द्रक झिल्ली के गायब होने के साथ-साथ प्रोफेज अवस्था पूर्ण हो जाती है।

(iii) मेटाफेज (Metaphase): समसूत्री विभाजन की इस अवस्था में तर्कु (Spindle) पूर्ण विकसित हो जाते हैं। तर्कु के बीचोबीच के भाग को मध्यवर्ती रेखा कहते हैं। गुणसूत्र के अर्द्धगुणसूत्र (Chromatids) पहले की तुलना में अधिक स्पष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र खिसककर तर्कु की मध्यवर्ती रेखा पर व्यवस्थित हो जाता है। गुणसूत्र अपने सेंट्रीमीयर द्वारा तर्कु धागों से जुड़ जाते हैं।

(iv) एनाफेज (Anaphase): समसूत्री विभाजन के इस अवस्था के आरम्भ होते ही प्रत्येक गुणसूत्र का सेंट्रोमीयर दो भागों में विभाजित हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक गुणसूत्र के क्रोमैटिड अब अलग-अलग हो जाते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिडों के मध्य एक तरह का विकर्षण (Repulsion) पैदा हो जाता है। इसके कारण दोनों क्रोमैटिड एकदूसरे से दूर खिसकने लगते हैं। तर्कु धागों में भी एक प्रकार का खिंचाव पैदा हो जाता है, जिससे तर्कु धागे धीरे-धीरे सिकुड़ना शुरू कर देते हैं। अतः तर्कु धागों का सिकुड़ना क्रोमैटिडों को एक-दूसरे से दूर खिसकने में मदद करता है। इस खिंचाव के फलस्वरूप दोनों क्रोमैटिड कोशिका के दोनों ध्रुवों पर पहुँच जाते हैं। गुणसूत्रों का आकार ‘V’ या ‘U’ की तरह का हो जाता है। अब प्रत्येक क्रोमैटिड संतति गुणसूत्र (Daughter chromosomes) कहलाते हैं।

(v) टेलोफेज (Telophase): इस अवस्था में संतति गुण सूत्र विपरीत दिशा में खिसकते-खिसकते अपनी ओर के तारककाय के निकट पहुँच जाते हैं। अब प्रत्येक कोशिका ध्रुव (Pole) में मौजूद संतति गुणसूत्रों में प्रोफेज के ठीक विपरीत प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इसके फलस्वरूप गुणसूत्रों में जलीयकरण (Hydration) शुरू हो जाता है जिससे गुणसूत्र धीरे-धीरे पतले व लम्बे हो जाते हैं और वे स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ते हैं। केंद्रिका (Nucleolus) पुनः प्रकट हो जाती है। इसके साथ-साथ गुणसूत्रों के चारों ओर केन्द्रक झिल्ली का निर्माण फिर से हो जाता है। इस प्रकार एक मातृ केन्द्रक से दो संतति केन्द्रक बन जाते हैं।

साइटोकाइनेसिस (Cytokinesis): केन्द्रक के विभाजन के पश्चात कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) का विभाजन होता है जिसे साइटोकाइनेसिस कहते हैं। वस्तुतः कोशिका द्रव्य का विभाजन एनाफेज अवस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। टेलोफेज के अन्त में कोशिकाद्रव्य बीचोबीच से अंदर की ओर धंसना शुरू कर देता है जिससे एक संकुचन (Constriction) बन जाता है। धीरे-धीरे कोशिकाद्रव्य का अंदर की ओर धैसना बढ़ता जाता है। परिणामस्वरूप कोशिकाद्रव्य दो भागों में बँट जाता है और अंत में कोशिका का पूर्ण विभाजन हो जाता है। इस प्रकार एक कोशिका से दो कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है।

 

पादप कोशिका में कोशिका द्रव्य का विभाजन कोशिका द्रव्य के अंदर धंसने के फलस्वरूप नहीं होता है। पादप कोशिकाओं में तर्कु के बीच में नन्हीं-नन्हीं कणिकाएँ एकत्रित होकर और आपस में संयोजित होकर कोशिका-पट्टिका (Cell plate) का निर्माण करती है। इस कोशिका पट्टिका के दोनों ओर सेल्यूलोस (Cellulose) की दीवार बन जाती है। इस प्रकार दो संतति कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है।

समसूत्री विभाजन का महत्व (Significance of mitosis): समसूत्री विभाजन द्वारा एक मातृ कोशिका से दो समान संतति कोशिकाओं का निर्माण होता है। इस विभाजन के परिणामस्वरूप निर्मित सभी संतति कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या समान रहती है। इस विभाजन के परिणामस्वरूप संतति कोशिकाओं के गुण मातृ कोशिकाओं के समान होते हैं। यह विभाजन सभी सजीवों में वृद्धि का आधार होता है। सजीवों में घावों का भरना एवं अंगों का पुनरुद्भवन (Regeneration) इसी विभाजन के परिणामस्वरूप संभव होता है।

  1. अर्द्धसूत्री विभाजन (Meiosis): अर्द्धसूत्री कोशिका विभाजन की खोज सर्वप्रथम बीजमैन (weismann) नामक वैज्ञानिक ने की थी, परन्तु इसका नामकरण Meiosis, फार्मर तथा मूरे (Farmer and Moore) ने 1905 ई. में किया। इस प्रकार का कोशिका विभाजन केवल जनन कोशिकाओं में होता है। इस कोशिका विभाजन के द्वारा जन्तुओं में शुक्राणु (sperm) तथा अण्डाणु (ovum) एवं पादपों में नर तथा मादा युग्मक बनते हैं जिनमें गुणसूत्रों की संख्या आधी रह जाती है। इस कारण इस कोशिका विभाजन को न्यूनकारी कोशिका विभाजन (Reductional cell division) भी कहा जाता है। गुणसूत्रों की संख्या का आधा होना युग्मकों के निर्माण के समय होता है, जिनको युग्मकजनन (Gametogenesis) कहते हैं। युग्मकों में सामान्य गुणसूत्र संख्या की आधी ही संख्या मौजूद रहती है। इस कारण इसे अगुणित कोशिका (Haploid cell) कहते हैं। अगुणित कोशिका में गुणसूत्रों की केवल एक ही प्रतिलिपि मौजूद होती है। शुक्राणु (sperm) व अण्डाणु (Ovum) संयोजित होकर युग्मनज (zygote) का निर्माण करते हैं जिससे जीव की उत्पत्ति होती है। युग्मनज में फिर से गुणसूत्रों की संख्या दोगुनी हो जाती है। इसे द्विगुणित कोशिका (Diploid cells) कहते हैं। द्विगुणित कोशिका में आधे गुणसूत्र माता से तथा आधे गुणसूत्र पिता से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के कोशिका विभाजन के परिणामस्वरूप एक मातृ कोशिका से चार संतति कोशिकाओं का निर्माण होता है।

अर्द्धसूत्री कोशिका विभाजन में दो विभाजन होते हैं। प्रथम विभाजन को विषमरूपी विभाजन (Heterotypic division) या ह्रास विभाजन (Reduction division) तथा दूसरे विभाजन को समरूप विभाजन (Homotypic division) कहते हैं। दो सम्पूर्ण अर्द्धसूत्री विभाजन के बीच में विश्रामावस्था (Interphase) होता है जो G1 अवस्था, S-अवस्था एवं G2 अवस्था में विभक्त होता है। समसूत्री विभाजन के S-अवस्था जैसा अर्द्धसूत्री के S-अवस्था में भी DNA का संश्लेषण होता है। अर्द्धसूत्री विभाजन विश्रामावस्था के G2 अवस्था के पश्चात् प्रारम्भ होता है। अर्द्धसूत्री कोशिका विभाजन की क्रिया को निम्नलिखित अवस्थाओं में बाँटा जा सकता है-

(A) विषमरूपी विभाजन (Heterotypic division) या ह्रास विभाजन (Reduction division): यह निम्नलिखित चरणों में सम्पन्न होता है-

  1. प्रोफेज-I (Prophase-I): यह एक लम्बी अवस्था है। माइटोसिस की तुलना में मिओसिस की पूर्वावस्था (Prophase) काफी लम्बी होती है। यह पाँच विभिन्न चरणों में सम्पन्न होती है-

(a) लेप्टोटीन (Leptotene): यह एक छोटी अवस्था है। इसमें गुणसूत्र लम्बे एवं पतले हो जाते हैं, जिसे क्रोमोनिमेटा (Chromonemata) कहते हैं। क्रोमोमीयर स्पष्ट हो जाते हैं। गुणसूत्रों की संख्या शरीर की अन्य कोशिकाओं के गुणसूत्रों की तरह द्विगुणित होती है।

(b) जाइगोटीन (zygotene): इस अवस्था में समजात गुणसूत्र जोड़ों में व्यवस्थित हो जाते हैं और वे लम्बाई में एक-दूसरे से सट जाते हैं। इन जोड़े गुणसूत्रों को बाइवैलेण्ट्स (Bivalents) कहते हैं। सेन्ट्रिओल एक-दूसरे से अलग होकर केन्द्रक के विपरीत ध्रुवों की ओर चले जाते हैं। तंतु एवं एस्टर का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। प्रोटीन एवं RNA संश्लेषण के फलस्वरूप केन्द्रिका बड़ा हो जाता है।

(c) पैकीटीन (Pachytene): इस अवस्था में जोड़े गुणसूत्र (Bivalents) सिकुड़कर छोटे और मोटे हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त जोड़े गुणसूत्रों का प्रत्येक गुणसूत्र लम्बाई में विभाजित हो जाता है। इसके फलस्वरूप प्रत्येक जोड़े गुणसूत्र (Bivalents) में चार क्रोमेटिड्स हो जाते हैं और अब यह टेट्रावैलेण्ट्स (Tetravalents) कहलाता है। इनमें दो मातृ तथा दो पितृ क्रोमैटिड्स होते हैं। कभी-कभी मातृ और पितृ क्रोमैटिड एक या ज्यादा स्थानों पर एक-दूसरे से क्रॉस (Cross) करते हैं। ऐसे बिन्दु पर मातृ तथा पितृ क्रोमैटिड टूट जाते हैं और एक क्रोमैटिड का टूटा हुआ भाग दूसरे क्रोमैटिड के टूटे स्थान से जुड़ जाते हैं। इसे क्रॉसिंग ओवर (Crossing over) कहते हैं।

(d) डिप्लोटीन (Diplotene): इस अवस्था का प्रारम्भ उसी समय हो जाता है जिस समय बाइवैलेण्ट्स के समजात गुणसूत्र क्रोमोमियर विभाजित होकर टेट्रावैलेण्ट्स बना लेते हैं। समजात गुणसूत्र अलग होने लगते हैं, परन्तु जोड़े के दो सदस्य पूर्ण रूप से अलग नहीं हो पाते, क्योंकि वे एक-दूसरे से X के रूप में उलझे रहते हैं। ऐसे स्थानों को काऐज्मेटा (Chiasmata) कहते हैं।

(c) डायकाइनेसिस (Diakinesis): इस अवस्था में बाइवैलेण्ट्स और अधिक छोटे व मोटे हो जाते हैं और वे केन्द्रक की दीवार के निकट चले जाते हैं। केन्द्रककला एवं केन्द्रिका लुप्त हो जाती है। सेन्ट्रोसोम अलग हो जाते हैं और तर्कुतन्तु का निर्माण हो जाता है। काइऐज्मेटा की संख्या कम होने लगती है।

  1. मेटाफेज-I (Metaphase-I): इस अवस्था में प्रत्येक बाइवैलेण्ट्स के सदस्य सेन्ट्रोमीयर द्वारा तर्कु तंतुओं के बीचो-बीच जुड़े रहते हैं। एक का सेन्ट्रीमीयर दूसरे के सेन्ट्रोमीयर के सामने स्थित होता है। इसप्रकार बाइवैलेण्ट्स तर्कु के बीचो-बीच अर्थात् मध्य रेखा पर व्यवस्थित हो जाते हैं।
  2. ऐनाफेज-I (Anaphase-I): इस अवस्था में बाइवैलेण्ट्स के सदस्य विकर्षण के फलस्वरूप कोशिकाओं के दोनों ध्रुवों की ओर खिसकने लगते हैं। इस प्रकार जोड़े गुणसूत्र से दोनों गुणसूत्र बिल्कुल अलग हो जाते हैं और कोशिका के दोनों ध्रुवों पर चले जाते हैं।
  3. टेलोफेज-I (Telophase-I): यह क्रिया समसूत्री विभाजन (Mitosis) की अंत्यावस्था के समान ही होती है। अब प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिड ‘L’ या ‘V’ के आकार में व्यवस्थित हो जाते हैं।
  4. साइटोकाइनेसिस (Cytokinesis): यह उसी प्रकार का होता है जिस प्रकार का समसूत्री विभाजन में होता है। इसके परिणामस्वरूप दो संतति कोशिकाएँ बनती हैं जिसमें गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिकाओं की ठीक आधी होती है।

विश्रामावस्था (Interphase): ह्रास विभाजन एवं समसूत्र विभाजन के बीच की अवस्था को विश्रामावस्था (Interphase) कहते हैं। इस अवस्था में DNA का अनुलिपीकरण (Replication) नहीं होता है। इसके शीघ्र पश्चात कोशिकाएँ समसूत्र विभाजन (Meiosis-II) की अवस्था में चली जाती है।

(B) समरूप विभाजन (Homotypic division) या समसूत्र विभाजन (Mitosis) या द्वितीय अर्द्धसूत्री विभाजन (second meiotic division): यह समसूत्री विभाजन जैसा ही होता है। इसमें समसूत्री विभाजन की तरह अवस्थाएँ होती हैं। प्रथम अर्द्धसूत्री विभाजन के पूर्ण होने के पश्चात द्वितीय अर्द्धसूत्री विभाजन प्रारम्भ हो जाता है। द्वितीय अर्द्धसूत्री विभाजन में चार अवस्थाएँ होती हैं-

(a) प्रोफेज-II (Prophase-II): इस अवस्था में क्रोमेटिन जाल संघनित (Condensed) होकर गुणसूत्रों का रूप धारण कर लेता है। गुणसूत्र मोटे और घने हो जाते हैं।

(b) मेटाफेज-II (Metaphase- II)– इस अवस्था में केन्द्रिका एवं केन्द्रक झिल्ली गायब हो जाते हैं। गुणसूत्रों के सेन्ट्रीमीयर दो भाग में विभक्त हो जाते हैं, किन्तु वे अलग नहीं होते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिड केवल द्विगुणित सेन्ट्रोमीयर द्वारा जुड़े रहते हैं। तर्कु (spindle) बन जाती है और गुणसूत्र तर्कु की मध्य रेखा पर सेन्ट्रीमीयर द्वारा चिपक जाते हैं।

(c) ऐनाफेज-II (Anaphase-II): इस अवस्था में गुणसूत्र के सेन्ट्रोमीयर विभाजित हो जाते हैं। एक गुणसूत्र के दोनों क्रोमैटिड्स अलग होकर दो गुणसूत्र बना लेते हैं। नए निर्मित गुणसूत्र तर्कु के विपरीत ध्रुवों पर चले जाते हैं।

(d) टेलोफेज–II (Telophase– II): ध्रुवों पर स्थित गुणसूत्रों के चारों ओर केन्द्रकीय झिल्ली बन जाती है। केन्द्रिका का निर्माण पुनः हो जाता है। इस प्रकार एक अगुणित केंद्रक से चार अगुणित केन्द्रक बन जाते हैं। इसके पश्चात् कोशिकाद्रव्य का विभाजन (Cytokinesis) होता है तथा एक कोशिका से दो कोशिकाएँ बन जाती हैं।

इस प्रकार अर्द्धसूत्री विभाजन के पूर्ण होने के पश्चात एक द्विगुणित कोशिका (2n) से चार अगुणित कोशिकाओं (n) का निर्माण होता है।

अर्द्धसूत्री विभाजन का महत्व (Significance of meiosis):

अर्द्धसूत्री विभाजन का निम्नलिखित महत्व है-

  1. गुणसूत्रों की संख्या का न्यूनीकरण (Reduction in the number of chromosomes): इस विभाजन के परिणामस्वरूप शुक्राणु एवं अण्डाणु जनन कोशिकाएँ बनते हैं जिनमें गुणसूत्रों की संख्या आधी होती है। निषेचन के बाद बनी कायिक कोशिकाओं में फिर गुणसूत्रों की संख्या दुगुनी हो जाती है जो जनकों में सामान्य संख्या होती है।
  2. आनुवंशिक पदार्थों की अदला-बदली (Exchange of genetic materials): अर्द्धसूत्री विभाजन के समय क्रोमैटिन पदार्थ का आपस में आदान-प्रदान होता है। इसके फलस्वरूप नर जनक और मादा जनक के गुणों का भली-भाँति मिश्रण होता है। इससे संतानों के अच्छे गुणों के समावेश की संभावना अधिक प्रबल हो जाती है।

महत्वपूर्ण तथ्य:

  1. फ्लेमिंग ने 1882 ई. में सर्वप्रथम जन्तु कोशिकाओं में समसूत्री विभाजन (Mitosis) का अध्ययन किया था। उन्होंने ही सर्वप्रथम माइटोसिस शब्द दिया था।
  2. फारमर एवं मूरे (Farmer and Moore) ने सर्वप्रथम अर्द्धसूत्री (Meiosis) शब्द दिया था।
  3. श्नाइडर (Cschneider) ने सर्वप्रथम केन्द्रक विभाजन (Karyokinesis) शब्द दिया था।
  4. व्हाइटमैन (whitemann) ने 1887 ई. में सर्वप्रथम कोशिका द्रव्य विभाजन (Cytokinesis) शब्द दिया था।
समसूत्री विभाजन एवं अर्द्धसूत्री विभाजन में अंतर
समसूत्री विभाजनअर्द्धसूत्री विभाजन
1. यह कायिक कोशिकाओं (somatic cells) में होता है, जिसके फलस्वरूप जीवों (पौधे एवं जन्तुओं) में वृद्धि एवं टूटे-फूटे भागों की मरम्मत होती है।1. यह केवल जनन कोशिकाओं में होता है, जिसके फलस्वरूप इसके द्वारा जीवों (पौधे एवं जन्तुओं) में एक पीढ़ी के गुण दूसरी पीढ़ी में जाते हैं।
2. यह विभाजन केवल एक चरण में पूर्ण होता है।2. यह विभाजन दो चरणों में पूर्ण होता है।
3. इस विभाजन में क्रॉसिंग ओवर (Crossing over) नहीं होता है।3. इस विभाजन में गुणसूत्र के अर्द्धगुणसूत्रों (Chromatids) का आदान-प्रदान होता है तथा क्रॉसिंग ओवर होता है।
4. इस विभाजन में पूर्वावस्था (Prophase) अपेक्षाकृत छोटी होती है।4. इस विभाजन में पूर्वावस्था काफी बड़ी होने से उसे 5 उप-अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है।
5. इस विभाजन में गुणसूत्र के जोड़े नहीं बनते हैं।5. इस विभाजन में समजात गुणसूत्र के जोड़े बनते हैं, जिसे युग्मित गुणसूत्र कहते हैं।
6. इस विभाजन में संतति कोशिकाओं (Daughter cells) की गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिकाओं के बराबर रह जाती है।6. इस विभाजन में संतति कोशिकाओं की गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिकाओं के आधी रह जाती है।
7. इसमें अर्द्धगुणसूत्र लम्बे व पतले होते हैं।7. इसमें अर्द्ध-गुणसूत्र छोटे व मोटे होते हैं।
8. पादप कोशिकाओं में कोशिका भिति अवश्य बनती है।8. पादप कोशिकाओं में प्रथम अंत्यावस्था (Telophase-I) के पश्चात् कोशिका भित्ति सदैव नहीं बनती है।
9. इस विभाजन के परिणामस्वरूप दो संतति कोशिकाओं का निर्माण होता है।9. इस विभाजन के परिणामस्वरूप चार संतति कोशिकाओं का निर्माण होता है।
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