आनुवंशिकी: मेंडल के आनुवंशिकता के नियम Mendel’s Law of Inheritance

प्रत्येक जीव में बहुत से ऐसे गुण होते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी माता-पिता अर्थात् जनकों से उनके संतानों में संचरित होते रहते हैं। ऐसे गुणों को आनुवंशिक गुण (Hereditary characters) या पैतृक गुण कहते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जीवों के मूल गुणों का संचरण आनुवंशिकता (Heredity) कहलाता है। मूल गुणों के संचरण के कारण ही प्रत्येक जीव के गुण अपने जनकों के गुण के समान होते हैं। इन गुणों का संचरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जनकों के युग्मकों (Gametes) के द्वारा होता है। अतः जनकों से उनके संतानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी युग्मकों के माध्यम से पैतृक गुणों का संचरण आनुवंशिकता कहलाता है।

आनुवंशिकता एवं विभिन्नता (variations) का अध्ययन जीव-विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे आनुवंशिकी या जेनेटिक्स (Genetics) कहते हैं। ग्रेगर जॉन मेंडल (Gregor John Mendel) ने अपने वैज्ञानिक खोजों से आधुनिक आनुवंशिकी (Modern genetics) की नींव डाली। इसीलिए उन्हें आनुवंशिकी का पिता (Father of Genetics) कहा जाता है।


मेंडल के आनुवंशिकता के नियम Mendel’s Law of Inheritance

ग्रेगर जॉन मेंडल (Gregor John Mendel, 1822-84) आस्ट्रिया देश के ब्रून (Brunn) नामक स्थान में ईसाइयों के एक मठ के पादरी थे। उन्होंने अपने वैज्ञानिक खोजों से आधुनिक आनुवंशिकी की नीव डाली। मटर के पौधों पर किए गए अपने प्रयोगों के निष्कर्षों को उन्होंने 1866 ई. में Annual proceedings of the natural history society or brunn में प्रकाशित कराया, परन्तु विज्ञान जगत में 34 वर्षों तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया। उनके मृत्यु के पश्चात् 1900 ई. में इनके प्रयोगों के निष्कर्ष को वैज्ञानिकों द्वारा मान्यता मिली।

मेंडल ने अपने प्रयोगों के लिए मटर के सात जोड़ी गुणों को चुना, जिनमें से प्रत्येक जोड़े का एक गुण प्रयोग के दौरान दूसरे गुण को दबाने की क्षमता रखता था। उन्होंने पहले को प्रभावी (Dominant) तथा दूसरे को अप्रभावी (Recessive) गुण कहा। मेंडल ने गुणों की वंशागति के लिए जिम्मेदार इन कारकों (Factors) को एक प्रतीक से व्यक्त किया। गुणों के जोड़ों में से उन्होंने प्रभावी लक्षण के कारक को अंग्रेजी के बड़े अक्षर (Capital letters) तथा अप्रभावी लक्षण के कारक को अंग्रेजी के छोटे अक्षर (small letters) से व्यक्त किया। जैसे- लम्बेपन के लिए “T” तथा बौनेपन के लिए ‘t ।

लक्षण (Characters)प्रभावी गुण (Dominant characters)अप्रभावी गुण (Recessive characters)
1.बीजों की आकृतिगोल चिकना बीजझुर्रीदार बीज
2.बीजपत्र का रंगपीला बीजपत्रहरा बीजपत्र
3.पुष्प का रंगलालसफेद
4.फली की आकृतिचिकनीसंकीर्णित
5.फली का रंगहरापीला
6.पुष्प की स्थितिकक्षस्थअग्रस्थ
7.पौधे की लम्बाईलम्बाबौना

मेंडल के अनुसार प्रत्येक जनन कोशिका में एक ही गुण को व्यक्त करने के लिए दो कारक (Factor) होते हैं। जब ये दोनों कारक समान हों, तो इस स्थिति को समयुग्मजी (Homozygous) तथा जब ये विपरीत हों, तो इस स्थिति को विषमयुग्मजी (Heterozygous) कहते हैं।

उदाहरण-

ТТ – समयुग्मजी (Homozygous)

Tt – विषमयुग्मजी (Heterozygous)

मेंडल ने पहले एक जोड़ी विपरीत गुणों और फिर दो जोड़ी विपरीत गुणों की वंशागति का अध्ययन किया, जिन्हें क्रमशः एकसंकरीय क्रॉस तथा द्धिसंकरीय क्रॉस कहते हैं।

एकसंकरीय क्रॉस (Monohybrid cross): जब दो पौधों के बीच एक इकाई लक्षण के आधार पर संकरण कराया जाता है, तो इसे एकसंकरीय क्रॉस कहते हैं। एक संकरीय क्रॉस में मेंडल ने मटर के पौधों की दो ऐसी उपजातियाँ चुनी जिनके विपरीत लक्षणों के जोड़ों में एक लम्बा (Tall) तथा दूसरा बौना (Dwarf) था और इसका आपस में क्रॉस कराया तो देखा गया कि पहली पीढ़ी (F1 Generation) में बीजों द्वारा जो पौधे उत्पन्न हुए, वे सभी लम्बे थे। इन सभी पहली पीढ़ी वाले पौधों को F1 पौधे कहते हैं। F1 पीढ़ी से प्राप्त पौधों को उन्होंने फिर स्वपरागण (self pollination) द्वारा उगाया और पाया कि दूसरी पीढ़ी F2 में पाये जाने वाले लम्बे तथा नाटे पौधों का समलक्षणी अनुपात (Phenotypic ratio) 3 : 1 था। इस प्रकार के अनुपात को एकसंकरीय अनुपात् (Monohybrid Ratio) भी कहते हैं। तीन लम्बे पौधों में एक शुद्ध लम्बा (Pure tall, TT) और दो मिश्रित या संकर लम्बे (Mixed or hybrid tall, Tt) थे। एक बौना पौधा जो F2 पीढ़ी से बना था, वह शुद्ध बौना था।

यदि हम F2 के पौधे से तीसरी पीढ़ी अर्थात् F3 प्राप्त करें तो देखेंगे कि शुद्ध लम्बे पौधे (TT) सदैव ही लम्बे पौधे बनाते हैं। इसी प्रकार शुद्ध बौने पौधे (tt) हमेशा ही बौने पौधे बनाते हैं परन्तु यदि मिश्रित लम्बे पौधे (Tt × Tt) का क्रॉस कराया जाए तो F, पीढ़ी की भाँति लम्बे तथा बौने पौधों का समलक्षणी अनुपात (Phenotypic ratio) 3 : 1 होगा।

F2 पीढ़ी के तीन लम्बे और एक बौने पौधे में एक शुद्ध लम्बा (TT), दो मिश्रित लम्बा (Tt) और एक शुद्ध बौना (tt) हुआ जिसका अनुपात 1 : 2 : 1 होता है। F3 शुद्ध लम्बे से क्रॉस कराने पर शुद्ध लम्बे पौधे ही प्राप्त होते हैं। जैसे-

TT × Tr → TT

F3 शुद्ध नाटे से क्रॉस कराने पर शुद्ध नाटे पौधे ही प्राप्त होते हैं। जैसे-

tt × tt → tt

लेकिन मिश्रित लम्बे (Tt) को मिश्रित लम्बे (rt) से क्रॉस कराने पर पुनः 3 : 1 के अनुपात में ही लम्बे और बौने (नाटे) पौधे प्राप्त होते हैं। इसमें-

TT – हमेशा शुद्ध लम्बा (Homozygous tall)

Tt — मिश्रित लम्बा (Heterozygous tall)

tt – हमेशा शुद्ध बौना (Homozygous dwarf)

इसका अनुपात

फीनोटिपिक अनुपात (Phenotypic ratio)- 3 :1 (3 लम्बा व 1 बौना)

जीनोटिपिक अनुपात (Genotypic ratio)- 1 : 2 : 1 (1 शुद्ध लम्बा, 2 मिश्रित लम्बा व 1 शुद्ध बौना)


द्धिसंकरीय क्रॉस Dihybrid Cross

इसमें दो जोड़े विपरीत लक्षणों को क्रॉस कराया जाता है। मेंडल ने द्विसंकरीय क्रॉस के लिए गोल तथा पीले बीज एवं हरे तथा झुर्रीदार बीज से उत्पन्न पौधों को क्रॉस कराया। इसमें गोल (Round) तथा पीला (Yellow) बीज प्रभावी (Dominant) होता है। दोनों पौधों को क्रमश: RRYY तथा rryy से प्रदर्शित किया जाता है। स्पष्ट है कि पहले पौधे के युग्मक में RY कारक तथा दूसरे पौधे के युग्मक में ry कारक होंगे। जब इन दो पौधों में कृत्रिम पर-परागण (Cross pollination) कराया गया तो उत्पन्न बीजों से जो पौधे प्राप्त हुए वे सभी गोल तथा पीले संकर बीज बने। यहाँ झुर्रीदार एवं हरा रंग अप्रभावी (Recessive) गुण था। अतः वे F1 पीढ़ी में छिपे रहे, किन्तु गोल तथा पीला रंग प्रभावी गुण था, इस कारण वे प्रकट हुए। अब इस F1 पीढ़ी के पौधों में स्वपरागण होने दिया गया तथा F2 पीढ़ी के पौधे प्राप्त किए गए। पृथक्करण नियम के अनुसार चार प्रकार के बीज बने, जिनका अनुपात इस प्रकार था- गोल + पीला बीज = 9

गोल + हरा बीज = 3

झुर्रीदार + पीला बीज = 3

झुरींदार + हरा बीज = 1

गोल-पीले और झुरींदार-पीले बीजों में 3 : 1 का अनुपात रहा। गोल-हरे और झुरींदार-हरे बीजों में भी 3 : 1 का अनुपात रहा।


मेंडल के नियम Mendel’s Law

एकसंकरीय क्रॉस (Monohybrid cross) एवं द्विसंकरीय क्रॉस (Dihybrid cross) के आधार पर मेंडल ने आनुवंशिकता सम्बन्धी कुछ नियमों का प्रतिपादन किया, जिसे मेंडल के आनुवंशिकता के नियम  (Mendel’s law of Inheritance) के नाम से जाना जाता है। इन नियमों में पहला एवं दूसरा एकसंकरीय क्रॉस के आधार पर तथा तीसरा नियम द्विसंकरीय क्रॉस के आधार पर आधारित है।

  1. प्रभाविकता का नियम (Law of Dominance): इसके अन्तर्गत मेंडल ने एक जोड़े के विपरीत लक्षणों को ध्यान में रखकर क्रॉस (Cross) कराया, तो प्रथम पीढ़ी में उपस्थित होने वाला लक्षण प्रभावी रहा। उदाहरणस्वरूप जब मटर के लम्बे पौधे से बौने पौधे का क्रॉस कराया गया तो प्रथम पीढ़ी में केवल लम्बे पौधे ही उगे। इससे नियमानुसार लम्बा प्रभावी (Dominance) तथा बौना अप्रभावी (Recessive) हुआ।
  2. मेंडल का पृथक्करण का नियम (Law of segregation): इस नियम के अनुसार युग्मकों के निर्माण के समय कारकों (जीन) के जोड़े के कारक अलग-अलग हो जाते हैं और इनमें से केवल एक कारक ही युग्मक में पहुँचता है। दोनों कारक एक साथ युग्मक में कभी नहीं जाते। इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of purity of gametes) भी कहा जाता है। जैसे- जब मटर के लम्बे पौधे का बौने पौधे से क्रॉस कराया जाता है, तो F1 पीढ़ी में केवल लम्बे पौधे ही उगते हैं, लेकिन पुनः जब इसी पीढ़ी के पुष्पों में स्वपरागण कराया जाता है तो F2 पीढ़ी के पौधे दोनों प्रकार के होते हैं। यहाँ लम्बे तथा बौने पौधे में 3 :1 का अनुपात पाया जाता है।
  3. स्वतन्त्रं अपव्यूहन का नियम (Law of independent assortment): इस नियम के अनुसार कारकों के विभिन्न जोड़े जो किसी जीव में पाये जाते हैं, एक-दूसरे के प्रति स्वतंत्र होते हैं और स्वतंत्रतापूर्वक मिश्रित होकर नए रंग-रूप के जीव बना सकते हैं।

मनुष्य में लिंग निर्धारण Sex Determination in Human

मनुष्य में गुणसूत्रों (Chromosomes) की कुल संख्या 46 होती है। प्रत्येक संतान को समजात गुणसूत्रों की प्रत्येक जोड़ी का एक गुणसूत्र अण्डाणु के द्वारा माता से तथा दूसरा शुक्राणु द्वारा पिता से प्राप्त होता है। शुक्रजनन (spermatogenesis) में अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा दो प्रकार के शुक्राणु बनते हैं- आधे वे जिनमें 23वीं जोड़ी का X-गुणसूत्र आता है (अर्थात् 22 + X) तथा आधे वे जिनमें 23वीं जोड़ी में Y-गुणसूत्र आता है, (अर्थात् 22 + Y)।

नारियों में एक समान प्रकार का गुणसूत्र अर्थात् (22 + X) तथा (22 + X) वाले अण्डाणु पाये जाते हैं। निषेचन (Fertilization) के समय यदि अण्डाणु X-गुणसूत्र वाले शुक्राणु से मिलता है तो युग्मनज (zygote) में 23वीं जोड़ी XX होगी और इससे बनने वाली संतान लड़की होगी। इसके विपरीत यदि किसी अण्डाणु से Y-गुणसूत्र वाले शुक्राणु से निषेचित होगा तो युग्मनज में 23वीं जोड़ी XY होगा और इससे बनने वाली संतान लड़का होगा। अतः पुरुष का गुणसूत्र संतान में लिंग निर्धारण के लिए उत्तरदायी होता है।


विभिन्नता Variation

विभिन्नता (variation) जीव के ऐसे गुण हैं जो उसे अपने जनकों अथवा अपनी ही जाति के अन्य सदस्यों के उसी गुण के मूल स्वरूप से भिन्नता को दर्शाते हैं।

विभिन्नता के कारण: जीन सभी जीवों के वंशानुगत गुणों का निर्धारक होता है। विभिन्नता जीन के माध्यम से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचारित होती है। अतः जीन का द्विगुणन (Duplication of genes) ही विभिन्नता का मुख्य कारण है। जीन का द्विगुणन कोशिकाओं के विभाजन के लिए अनिवार्य है तथा जनन के लिए कोशिकाओं का विभाजन आवश्यक है। अतः जनन के कारण ही विभिन्नता का संचरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता है। विभिन्नताएँ सामान्यतः लैंगिक जनन (sexual reproduction) से उत्पन्न संतानों में ही स्पष्ट देखी जाती है। अलैंगिक जनन जैसे-कायिक प्रवर्द्धन (vegetative propagation) से उत्पन्न पीढ़ी में स्पष्ट रूप से दिखनेवाली विभिन्नताएँ सामान्यतः कम पायी जाती हैं।

विभिन्नताओं के प्रकार: विभिन्नताएँ दो प्रकार की होती हैं। ये हैं-

  1. जननिक विभिन्नता (Germinal variation तथा
  2. कायिक विभिन्नता (Somatic variation)

जननिक विभिन्नता Germinal Variation

ऐसी विभिन्नताएं जनन-कोशिकाओं (Germ cells) में होने वाले परिवर्तन के कारण होती हैं। ऐसी विभिन्नताएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में वंशागत होती हैं। इस कारण जननिक विभिन्नता को आनुवंशिक विभिन्नता (Genetic variation) के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी विभिन्नताओं में से कुछ जन्म से ही प्रकट हो जाती हैं, जैसे- आँखों एवं बालों का रंग, जबकि कुछ विभिन्नताएँ जन्म के बाद में प्रकट होती हैं, जैसे- शारीरिक गठन, शरीर की लम्बाई आदि।

कायिक विभिन्नता Somatic Variation

ऐसी विभिन्नताएँ कई कारणों से प्रकट हो सकती हैं, जैसे जलवायु एवं वातावरण का प्रभाव, उपलब्ध भोजन के प्रकार, अन्य उपस्थित जीवों के साथ परस्पर व्यवहार इत्यादि। ऐसी विभिन्नताएँ गुणसूत्र (Chromosome) या जीन (Gene) के गुणों में परिवर्तन के कारण नहीं होती हैं। अतः ऐसी विभिन्नताएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में वंशागत नहीं होती हैं। ऐसी विभिन्नताएँ उपार्जित (acquired) होती हैं। इस कारण जैव विकास (Evolution) में इनका कोई महत्व नहीं होता है।

आनुवंशिक विभिन्नता के स्रोत Sources of Genetic Variation

जीवों में आनुवंशिक विभिन्नता उत्परिवर्तन (Mutation) के कारण होता है तथा नई जाति (species) के विकास में इनका महत्वपूर्ण योगदान होता है। गुणसूत्र या क्रोमोसोम पर उपस्थित जीन की संरचना तथा स्थिति में परिवर्तन ही उत्परिवर्तन का कारण है। आनुवंशिक विभिन्नता का दूसरा कारण आनुवंशिक पुनर्योग (Genetic recombination) भी है। आनुवंशिक पुनर्योग के कारण संतानों के क्रोमोसोम में जीन के गुण अपने जनकों के जीन के गुण से भिन्न हो सकते हैं। ऐसे नए गुण जीवों को अपने वातावरण के अनुसार अनुकूलन में सहायक हो सकते हैं। कभी-कभी ऐसे नए गुण जीवों को वातावरण में अनुकूलित होने में सहायक नहीं भी होते हैं। ऐसी स्थिति में आपसी स्पर्द्धा, रोग इत्यादि कारणों से वैसी जीव विकास की दौड़ में विलुप्त हो जाते हैं। बचे हुए जीव ऐसे लाभदायक गुणों को अपने संतानों में संचरित करते हैं। इस प्रकार प्रकृति नए गुणों वाले कुछ जीवों का चयन (selection) कर लेती है तथा कुछ को निष्कासित कर देती है।

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