मानव रोग के प्रकार लक्षण एवं उपचार
रोग (व्याधि) शब्द का मूल शब्द व्याधा है, जिसका अर्थ है रुकावट, अर्थात् अच्छे स्वास्थ्य में रुकावट उत्पन्न होना ही रोग है। दूसरे शब्दों में, शरीर में विकार होना ही रोग (Disease-Dis-EASE अर्थात् असहज) कहलाता है।
रोग के प्रकार Types of Disease
रोग को उनकी प्रकृति तथा कारणों के आधार पर दो वर्गों में विभक्त किया जाता है। ये हैं-
1. जन्मजात रोग Congenital diseases
वे रोग जो जन्म के समय से ही शरीर में होते हैं, उन्हें जन्मजात रोग कहते हैं। ये रोग उपापचयी या विकासीय अनियमितताओं के कारण फैलते हैं।
2. उपार्जित रोग Acquired Diseases
वे रोग जो जन्म के पश्चात् विभिन्न कारकों के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपार्जित रोग कहते हैं। उपार्जित रोग दो प्रकार के होते हैं-
i. संक्रामक रोग या संसर्गी रोग Communicable Diseases or Infectious Diseases
यह हानिकारक-सूक्ष्म-जीवों (रोगाणुओं) के कारण होता है, उदाहरणतः जीवाणु, विषाणु, कवक एवं प्रोटोजोआ। रोग कारक जीव का संचारण वायु, जल, भोजन, रोगवाहक कीट तथा शारीरिक सम्पर्क के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में होता है। इसीलिए इन्हें संचरणीय या संक्रामक रोग कहते हैं।
ii. असंक्रामक (असंचरणीय रोग) Non-Communicable Diseases
जो रोग संक्रमित व्यक्ति (रोगी) से स्वस्थ व्यक्ति को स्थानांतरित नहीं होता, उन्हें असंचरणीय अथवा असंक्रामक रोग कहते हैं। मधुमेह, जोड़ों का दर्द, कैंसर, हृदय रोग आदि इसके कुछ उदाहरण है। असंक्रामक रोग निम्न प्रकार के होते हैं-
a. ह्रासित रोग Degenerative Diseases
यह विभिन्न शारीरिक अंगों के नष्ट होने से उत्पन्न होते हैं, जैसे- हृदय रोग
b. हीनताजन्य रोग Deficiency Diseases
यह विभिन्न पदार्थों की कमी से उत्पन्न होता है, जैसे- रिकेट्स, मरास्मस, पेलाग्रा आदि।
c. प्रत्यूर्जता Allergy
यह किसी पदार्थ के प्रति अति संवेदनशीलता के कारण होता है।
d. कैंसर Cancer
यह रोग अनियमित ऊतक वृद्धि के कारण होता है।
e. आनुवांशिक रोग Genetic Diseases
यह आनुवंशिक कारकों के कारण होता है, जैसे- वर्णान्धता, हीमोफीलिया आदि।
f. जन्मजात रोग Congenital Diseases
इन रोगों का आक्रमण गर्भावस्था के दौरान ही होता है। ओंठ का कटना (Harelip), विदीर्ण तालु (Cleft palate) और पाँव का फिरा होना (Club foot) आदि जन्मजात रोग के उदाहरण हैं। जन्मजात रोग निषेचित अण्डाणु की गुणसूत्रीय संरचना में कमी या गर्भाशय स्थित शिशु पर आघात पहुँचने के कारण भी होता है। गुणसूत्रों में असंतुलन के कारण मॉन्गोलिज्म (Mongolism), हृदय विकृति के कारण नील शिशु का जनन, तंत्रिका की असामान्यता के कारण स्थानिक अधरांगता आदि जन्मजात रोग होते हैं।
प्रमुख मानव रोग, लक्षण एवं उपचार Major Human Diseases, Symptoms and Treatment
बैक्टीरिया जनित रोग Bacterial Diseases
आंत्र ज्वर Typhoid
यह सालमोनेला टाइफोसा (solrnonella fyphosa) नामक जीवाणु से होता है। इसे आंत का बुखार के नाम से भी जाना जाता है। यह रोग पानी की गंदगी से फैलता है। रोगी की प्लीहा (spleen) और आंत्र योजनी ग्रंथियाँ बढ़ जाती हैं। रोगी को तेज बुखार रहता है और सिरदर्द बना रहता है।
उपचार
रोगी व्यक्ति को मल-मूत्र निवास स्थान से दूर कराना चाहिए। भोजन को मक्खियों से बचाना चाहिए। इसकी चिकित्सा के लिए क्लोरोमाइसिटिन औषधि का उपयोग किया जाता है।
तपेदिक या राजयक्ष्मा Tuberculosis
इस रोग को य६मा या काक रोग भी कहते हैं। यह एक संक्रामक रोग है। जो माइकोबैक्टीरियम माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस (Mycobacterium tuberculosis) नामक जीवाणु के कारण उत्पन्न होता है। इस रोग के जीवाणु मुँह से थूकते समय या चूमने से प्रसारित होते हैं। इस रोग के लक्षण हैं- ज्वर, रात्रि में पसीना आना, भूख की कमी, शक्ति और वजन में ह्रास, पाचन और तन्त्रिका तन्त्र में गड़बड़ी आदि।
उपचार
इस रोग के उपचार के लिए स्ट्रेप्टोमाइसीन का इन्जेक्शन दिया जाता है और पी.ए.एस. (Para aminosalysilic acid) तथा आइसोनियाजाइड मुंह से ली जाती है। बी. सी. जी. (Bacillus calmette guerin) एकप्रतियाक्ष्मिकीय टीका है। विलीसिन तपेदिक रोग की नवीनतम दवा है।
प्लेग Plague
यह एक छुआछूत की बीमारी है जो बैसिलस पेस्टिस (Bacillus pestis) नामक जीवाणु द्वारा फैलती है। इसका संक्रमण चूहों पर पाये जाने वाले पिस्सुओं से होता है, क्योंकि पिस्सुओं (Fleas) के शरीर में प्लेग का बैक्टिरिया रहता है। जेनोप्सला केओपिस (xanopsylla cheopis) प्लेग का सबसे भयानक पिस्सू है क्योंकि यह आसानी से चूहे से मानव तक पहुँच जाता है। प्लेग तीन प्रकार के होते हैं-
- गिल्टी वाले प्लेग में रोगी की जांघ, कांख तथा गर्दन की ग्रन्थियों में सूजन हो जाता है।
- न्यूमोनिक प्लेग रोगी को खांसी, छींक और थूक के माध्यम से फैलता है।
- सेप्टीसिमिक प्लेग में जीवाणु गिल्टियों से रक्त में प्रवेश कर जाते हैं। यह बहुत घातक साबित होता है।
उपचार
सल्फाड्रग्स एवं स्ट्रप्टोमाइसीन दवाओं का उपयोग इस रोग के उपचार के लिए किया जाता है। इसकी रोकथाम के लिए सर्वप्रथम चूहों को निवास स्थान से दूर रखने का प्रयास करना चाहिए।
हैजा Cholera
यह विब्रियो कॉलेरा (Vibrio cholera) नामक जीवाणु के कारण होता है और मक्खियों द्वारा फैलता है। रोगी के शरीर में जल की कमी हो जाती है तथा रक्त का संचार धीमा पड़ जाता है। उल्टी-दस्त के साथ शरीर का सारा जल निकल जाता है जिसके कारण प्यास बहुत बढ़ जाती है।
उपचार
हैजे का टीका लगवाना चाहिए। पानी को उबाल कर पीना चाहिए। पीने के पानी को उष्णकटिबन्धीय लाइम क्लोराइड अथवा क्लोरोजोन से शोधित करना चाहिए।
डिप्थीरिया Diptheria
यह रोग कोरोनीबैक्टीरियम डिप्थेरी (Corynebacterium diphtheriae) नामक जीवाणु से होता है। इस रोग में गले में कृत्रिम झिल्ली बन जाती है और श्वासावरोध होता है, जिससे रोगी की मृत्यु हो जाती है। यह रोग अधिकांशतः संक्रमित दूध के माध्यम से फैलता है। इस रोग के जीवाणु रोगी के यूक, खखार और वमन आदि माध्यम से बाहर निकलते हैं।
उपचार
डी.पी.टी. (डिप्थीरिया एन्टी टॉक्सीन) का टीका लगवाना चाहिए एवं सफाई पर पूरा ध्यान देना चाहिए। रोगी के व्यवहार में लाए गए कपड़ों को विसंक्रमित कर देना चाहिए। तथा रोगी की नाक और मुंह को पोटैशियम परमैंगनेट के घोल से धो देना चाहिए।
टिटनेस Tetanus
सामान्यतः इसे लॉक जॉ (Lock Jaw) या धनुष्टंकार कहा जाता है। यह रोग बैसीलस टेटनी (Bacillus tetani) नामक जीवाणु से होता है। इस रोग के जीवाणु घाव से होकर शरीर में प्रवेश करता है। इस रोग से पेशियों में आकुंचन और प्रसरण नहीं हो पाता है और शरीर में अकड़न होने लगती है।
उपचार
पेनीसिलीन प्रतिजैविक का इन्जेक्शन लेना चाहिए। बचाव के लिए टिटवैक या ए.टी.एस. (A.T.S.) का इन्जेक्शन तीन बार लगवाना चाहिए।
कोढ़ या कुष्ठ Leprosy
यह एक संचारणशील रोग है, जो माइकोबैक्टिरियम लेप्री (Mycobacterium leprae) नामक जीवाणु से फैलता है। यह पैतृक या आनुवंशिक रोग नहीं है। इस रोग से ऊतकों का अपक्षय होने लगता है। शरीर पर चकते प्रकट होने लगते हैं तथा कोहनी व घुटने के पीछे, एड़ी और कलाई के अगल-बगल की तंत्रिकाएँ प्रभावित हो जाती हैं।
उपचार
इस रोग के रोकथाम के लिए एम.डी.टी. (M.D.T.) दवाओं का उपयोग किया जाता है। इसमें तीन दवायें शामिल हैं- (i) डेपसोन (ii) क्लोफाजीमीन एवं (iii) रिफैमिसीन।
निमोनिया Pneumonia
यह रोग डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae) नामक जीवाणु से होता है। रोगी को तेज बुखार तथा सांस लेने में कठिनाई होती है। फेफड़ों में सूजन आ जाती है। इस रोग से ग्रसित रोगी को ठंड से बचाते हैं तथा एन्टीबायोटिक्स औषधियाँ प्रयोग करते हैं।
काली खांसी Whooping Cough
यह रोग हीमोफिलस परटूसिस (Haemop-hilous perfusis) नामक जीवाणु से होता है। इस रोग का प्रसार प्रायः हवा द्वारा होता है। यह मुख्यतः बच्चों को होता है। इस रोग से बचने के लिए काली खांसी का टीका (DPT) लगवाना चाहिए।
सिफलिस Syphilis
इस रोग का कारक ट्रेपोनीमा पैलिडम (Treponema pallidum) है। इस रोग का संक्रमण रोगी के साथ मैथुन या संभोग करने से होता है। इस रोग में शिश्न व योनि में लाल रंग के दाने, बाद में शरीर पर चकते तथा अंत में हृदय, यकृत व मस्तिष्क भी प्रभावित होता है। इस रोग में पेनिसिलीन द्वारा लाभ होता है।
गोनोरिआ Gonorrhoea
इस रोग का कारक नाइसेरिया गोनोरियाई (Neisseria somorrhoeae) है। रोग का संक्रमण रोगी के साथ संभोग करने से होता है। इस रोग में मूत्र-जनन पथ की म्यूकस का संक्रमण होता है। जोड़ों में दर्द होता है तथा स्त्रियाँ बांझ हो जाती हैं। रोगी व्यक्ति के साथ संभोग से बचना चाहिए। एन्टीबायोटिक औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।
वायरस जनित रोग Viral Diseases
एड्स AIDS
एड्स (AIDS) एक्वायर्ड इम्यूनो डिफिसिएन्सी सिन्ड्रोम (Acouired Immuno-Deficiency syndrome) का संक्षिप्त रूप है। यह रोग इस विषाणु का नाम है- एच. आई. वी. (HIV–Human Immuno Defficiency Virus)। रोग यौन सम्बन्धों के कारण, रक्तधान में अनियमितता से और नशीले पदार्थों के अत्यधिक सेवन करने से फैलता है। इस रोग से ग्रसित रोगी की रोग प्रतिरोधक क्षमता समाप्त हो जाती है। रोगी का शरीर जगह-जगह फूल जाता है, खून का संचार अव्यवस्थित हो जाता है और अंततः रोगी की मृत्यु हो जाती है। इस रोग के उपचार के लिए किया जाता है। ए.जेड.टी. (Azidothymidine) दवाओं का भी प्रयोग किया जाता है जो एच. आई. वी. विषाणुओं की रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज क्रिया रोककर विषाणुओं को बहुगुणित होने से रोकती है।
चेचक Small Pox
यह एक अत्यन्त संक्रामक रोग है जिसका संक्रमण एक अतिसूक्ष्म विषाणु के कारण होता है। इस रोग से ग्रसित रोगी को सर्वप्रथम सिर, पीठ, कमर और बाद में सारे शरीर में जोरों का दर्द होता है एवं बाद में लाल-लाल दाने निकल जाते हैं, जो बाद में फफोले का रूप धारण कर लेते हैं।
उपचार
रोगी को तब तक अलग रखना चाहिए जबतक कि फोड़ों के सुरण्ड साफ न हो जाएँ। घर या आस-पास के लोगों को चेचक का टीका ले लेना चाहिए।
इन्फ्लुएंजा Influenza
यह एक संक्रामक रोग है, जिसका संक्रमण इन्फ्लुएन्जी (Influenzae) नामक रोगाणु के कारण होता है। इसको फ्लू (Flu) भी कहते हैं। इस रोग का आक्रमण होने पर सिर और पूरे शरीर में जोरों का दर्द, सर्दी, खांसी तथा तेज ज्वर आदि लक्षण प्रकट होते हैं। यह कभी-कभी महामारी का रूप भी ले लेता है।
उपचार
रोगी को टेरामाइसीन, टेट्रासाइक्लीन आदि एन्टीबायोटिक्स लेनी चाहिए। रोगी का पेट साफ रखना चाहिए। पोटाशियम परमैग्नेट के घोल से सुबह-शाम गरारा करना चाहिए।
पोलियो Poliomyelitis
यह रोग निस्यंदी विषाणु (Filterable virus) के कारण होता है। इस रोग का प्रभाव केन्द्रीय नाड़ी संस्थान पर होता है, तथा रीढ़ की हड्डी और आंत की कोशिकाएँ नष्ट हो जाती हैं। यह प्रायः बच्चों को होता है। शरीर इससे बचने के लिए रोगप्रतिकारक पदार्थ का निर्माण करने लगता है, जिससे विषाणु मर जाते है और रोगी पूर्णतः ठीक हो जाता है।
उपचार
इस रोग से बचाव के लिए बच्चों को पोलियो निरोधी वैक्सीन दिया जाता है। साक टीके (salk vaccine) जो कि साक (salk) ने ही खोजी थी इन्जेक्शन के द्वारा दी जाती है। एल्बर्ट सेबीन ने 1957 में मुख से लेने वाली पोलियो ड्रॉप की खोज करके प्रतिरक्षीकरण को और आसान बना दिया।
डेंगू ज्वर Dengue Fever or Breakbone Fever
यह रो विषाणु के कारण होता है। इस रोग को इडिस इजिप्टी, इडिस एल्बोपिक्टस और क्यूलेक्स फटिगन्सस नामक मच्छर संचारित करते हैं। इस रोग में अचानक तेज ज्वर आ जाता है, चेहरा पर पित्तियाँ निकल आती हैं तथा सिर, आँखें, पेशियों और जोड़ों में बहुत जोरों का दर्द होता है। यह महामारी के रूप में अचानक फैलता है। इस रोग को हड्डी तोड़ बुखार भी कहते हैं।
हिपैटाइटीस या पीलिया जा जॉन्डिस Jaundice
यह एक यकृत रोग है, जिसमें रक्त में पित्त वर्णक (Bile pigment) अधिक मात्रा में चला आता है। इसमें यकृत में पित्त वर्णक का निर्माण अधिक मात्रा में होने लगता है, परन्तु यकृत की कोशिकाएँ इसका उत्सर्जन निम्न मात्रा में करती हैं। फलतः पित्त वर्णक यकृत-शिरा के माध्यम से रक्त में प्रवेश कर जाता है। पेशाब भी पीला हो जाता है। खून में पित्त (Bile) बढ़ जाता है।
उपचार
इस रोग से बचने के लिए ठंढक से बचना चाहिए। हल्का परन्तु पौष्टिक आहार ग्रहण करना चाहिए। रोगी को तब तक आराम करना चाहिए जब तक सीरम में बिलीरूबीन (Bilirubin) की मात्रा 1.5 मिलीग्राम प्रति 100 मिलीलीटर नहीं हो जाता है।
हाइड्रोफोबिया या रेबीज Hydrophobia or Rabies
यह एक संघातिक रोग है जिसका संक्रमण केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में होता है। इसका संक्रमण पागल कुते, भेड़िये, लोमड़ी आदि के काटने से होता है, क्योंकि यह रोग सर्वप्रथम इन्हीं जन्तुओं में होता है। इनके काटने से रोग के विषाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और समुचित समय पर चिकित्सा न की जाने पर केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करते हैं। यह रोग दो रूपों में देखने को मिलता है। एक में उत्तेजना होती है, जल से भय उत्पन्न होता है और रोगी की आवाज कुते के भूकने जैसी निकलती है। दूसरे में रोगी को पक्षाघात (Paralysis), तेज ज्वर और भयंकर सिरदर्द होता है तथा वमन (vomiting) करने की प्रवृत्ति और बेचैनी महसूस होती है।
उपचार
रेबीज रोधी (Anti-rabies) टीका लगवाना चाहिए। इस टीके की खोज लुई पाश्चर ने किया था। घाव को शुद्ध कार्बोलिक या नाइट्रिक एसिड से धो देना चाहिए।
मेनिनजाइटिस Meningitis
इस रोग में मस्तिष्क प्रभावित होता है। इस रोग में रोगी को तेज बुखार आता है तथा बाद में बेहोशी भी होने लगती है। मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु के ऊपर चढ़ी झिल्ली के नीचे रहने वाले द्रव सेरिब्रो स्पाइनल द्रव से संक्रमण होता है। इस रोग से बचने के लिए मेनिनजाइटिस रोधी टीका लगवाना चाहिए।
ट्रेकोमा Trachoma
यह ऑख की कार्निया का सांसर्गिक रोग है। इससे कार्निया में वृद्धि हो जाती है जिससे रोगी निद्राग्रस्त सा लगता है। इस रोग से बचने के लिए पेनीसीलीन, क्लोरोमाइसीटीन आदि का प्रयोग करना चाहिए।
छोटी माता Chicken Pox
यह रोग भी चेचक की तरह बहुत ही संक्रामक होता है। इसमें हल्का बुखार होता है तथा शरीर पर पितिकाएँ निकल जाती हैं जो बाद में जलस्फोटों में बदल जाती है। इस रोग से बचने के लिए चेचक के टीके लगवाना चाहिए तथा सफाई पर ध्यान देना चाहिए।
खसरा Measles
इस रोग का कारक मोर्वेली विषाणु (Morbeli virus) है। इस रोग में सम्पूर्ण शरीर प्रभावित होता है। यह वायु वाहित रोग है। इस रोग के विषाणु नाक से स्राव द्वारा फैलते हैं। इस रोग के आरंभ में नाक व ऑख से पानी बहता है, शरीर में दर्द रहता है तथा ज्वर आदि लक्षण प्रकट होते हैं। 3-4 दिन बाद शरीर पर लाल दाने हो जाते है। इसके उपचार के लिए रोगी को आराम करना चाहिए और हल्का भोजन तथा उबला पानी पीना चाहिए।
गलसुआ Mumps
इस रोग का कारक मम्पस वाइरस (Mumps virus) है। इस रोग में लार ग्रंथि प्रभावित होता है। इस रोग के विषाणु का प्रसार रोगी की लार से होता है। प्रारंभ में झुरझुरी, सिरदर्द तथा कमजोरी महसूस होती है। एक-दो दिन बुखार रहने के बाद कर्ण के नीचे स्थित पैरोटिड ग्रंथि (Parotid gland) में सूजन आ जाती है। इसके उपचार के लिए नमक के पानी की सिकाई तथा टेरामाइसिन के इन्जेक्शन लगवाने चाहिए।
फफूंद जनित रोग Fungal Diseases
दमा Asthma
यह एक संक्रामक रोग है। मनुष्य के फेफड़ों में एस्पर्जिलस फ्यूमिगेटस (Aspergillus fumigatus) नमक कवक के बीजाणु (Spore) पहुँचकर वहाँ जाल बनाकर फेफड़े के सूक्ष्म नलियों में सिकुड़न ला देते है।
उपचार
दमा के इलाज में डेरीफाइनील, टेड्राल, एड्रेनलिन, ब्रोमहेक्सिन, प्रेडनीस्लोन, डेल्टाकौटिल आदि दवाओं का प्रयोग किया जाता है।
गंजापन Baldness
यह टिनिया केपिटिस (Taenia capitis) नामक कवक से होता है। इस रोग में सिर के बालों की ग्रंथियाँ कवकों द्वारा नष्ट कर दी जाती हैं, जिससे सिर के बाल टूटने लगते हैं।
दाद Ringworm
यह रोग ट्राइकोफाइटॉन (Trichophyton) नमक कवक से फैलता है। कवक त्वचा के अन्दर अपना जाल बना लेते हैं जिससे त्वचा पर लाल रंग के गोले पड़ जाते हैं। यह एक संक्रामक रोग है।
एथलीट फुट Athlete’s Foot
इस रोग का कारक ट्राइकोफाइटॉन (Trichophyton) नामक कवक है। इस रोग का संक्रमण संक्रमित जमीन से होता है। इस रोग का रोगाणु त्वचा के मुलायम हिस्से को प्रभावित करता है।
खाज Scabies
इस रोग का कारक एकेरस स्केबीज (Acarus scabies) है । इस रोग में त्वचा में खुजली होती है तथा सफेद दाग पड़ जाते है।
प्रोटोजोआ जनित रोग Protozoan Born Diseases
निद्रा रोग या स्लीपिंग सिकनेस Sleeping Sickness
यह रोग ट्रिपेनोसीमा (Trypanosoma) नामक प्रोटोजोआ के कारण उत्पन्न होता है। यह एक परजीवी है, जो सी-सी मक्खियों (Tse-Tse Fly) के शरीर में आश्रय लेता है। इन मक्खियों के काटने से रोगाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, जिससे लसीका ग्रन्थियाँ बढ़ जाती हैं और शारीरिक तथा मानसिक निष्क्रियता उत्पन्न हो जाती है, शरीर में दर्द तथा कमजोरी मालूम पड़ती है।
उपचार: सी-सी मक्खियों को कीटनाशी दवाओं का छिड़काव कर नष्ट कर देना चाहिए तथा ट्रिपर्सेमाइड की सूई का पूरा कोर्स ले लेना चाहिए।
पेचिस Dysentery
यह एन्टअमीबा हिस्टोलिटिका (Entamoeba histolytica) नामक प्रोटोजोआ के कारण होता है। यह परजीवी बड़ी आंत के अगले भाग में रहता है। रोगी को दस्त होता है, जिसमें आंव और खून की मात्रा अधिक रहती है। पेट में मरोड़ और बार-बार शौचालय जाने की इच्छा होती है।
उपचार: पानी और दूध उबाल कर पीना चाहिए। एन्टीकोनाल, आइरोफार्म, मेक्सफार्म जैसी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए।
मलेरिया Malaria
यह रोग प्लाज्मोडियम (Plasmodium) नामक परजीवी प्रोटोजोआ से होता है। प्लाज्मोडियम, मादा एनोफिलिज मच्छर के शरीर में आश्रय लेता है जिसे यह अपने डंक द्वारा मनुष्य के शरीर में पहुँचाकर उसे रूग्ण कर देती है। इस रोग में जाड़े के साथ बुखार आता है। लाल रुधिराणु नष्ट हो जाते हैं तथा रक्त में कमी आ जाती है।
उपचार: कुनैन, पेलुड्रीन, क्लोरोक्वीन, प्रीमाक्वीन आदि औषधि लेनी चाहिए।
पायरिया: यह एन्ट अमीबा जिन्जिवेलिस (Entamoeba gingivalis) नामक प्रोटोजोआ के कारण होता है। इसमें मसूढ़ों से पस निकलता है तथा दाँतों की जड़ों में घाव हो जाता है।
उपचार: भोजन में विटामिन C प्रचुर मात्रा में होनी चाहिए। भोजन में रेशेदार खाद्य पदार्थ जैसे हरी सब्जियाँ, गन्ना, फल इत्यादि जरूर खाना चाहिए।
कालाजार Kalazar
यह लीशमैनिया डोनोवानी (Leishmania donovani) नामक प्रोटोजोआ से फैलता है। इस परजीवी का वाहक बालू मक्खी (sand Fly) है। इसमें रोगी को तेज बुखार आता है।
आनुवंशिक रोग Genetial Diseases
वर्णान्धता Colour Blindness
इस रोग से ग्रसित व्यक्तियों में लाल एवं हरा रंग पहचानने की क्षमता नहीं होती है। इससे मुख्य रूप से पुरुष प्रभावित होता है, क्योंकि स्त्रियाँ केवल वाहक (Carrier) का काम करती हैं। स्त्रियों में यह रोग तभी होता है जब इसके दोनों गुणसूत्र XX प्रभावित हों। यदि एक गुणसूत्र (X) पर वर्णान्धता के जीन हों तो स्त्रियाँ वाहक का कार्य करेंगी लेकिन वर्णान्ध नहीं होगी। इसके विपरीत पुरुषों में केवल X गुणसूत्र पर वर्णान्धता होंगे। इस बीमारी को डाल्टोनिज्म (Daltonism) भी कहते हैं। यह मुख्यतः लिंग संबंधी रोग है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी फैलता है।
हीमोफीलिया Haemophilia
इसमें स्त्रियाँ वाहक का कार्य करती हैं। साधारणतः एक व्यक्ति को चोट लगने पर औसतन 2-5 मिनट में रक्त थक्का बनकर बहना बंद हो जाता है, किन्तु हीमोफीलिया से ग्रस्त व्यक्ति में चोट लगने पर काफी समय के बाद भी रक्त लगातार बहता रहता है। रक्त में कुछ प्रोटीन की कमी के कारण थक्का नहीं बनता है। अंततः शीघ्र उपचार न होने पर रोगी की मृत्यु भी हो सकती है।
टर्नर सिन्ड्रोम Turner’s Syndrome
यह रोग अर्द्धसूत्री विभाजन में अनियमितता से उत्पन्न होता है। विभाजन में अनियमितता हो जाने से एक ऐसे अंडे का निर्माण होता है, जिसमें कोई भी लिंग गुणसूत्र नहीं होता तथा दोनों लिंग गुणसूत्र (XX) एक ही अंडे में चले जाते हैं। जब इस प्रकार अंडा सामान्य शुक्राणु से निषेचित होता है तो बनने वाले जाइगोट में लिंग गुणसूत्रों की संख्या कम हो जाती है। इस प्रकार के जाइगोट से बनने वाली स्त्रियों में अनेक शारीरिक असमानताएँ उत्पन्न हो जाती है, जैसे-शरीर अल्प विकसित, कद छोटा तथा वक्ष चपटा और जननांग अविकसित। ऐसी स्त्रियाँ बांझ होती है।
क्लिनफेल्टर सिंड्रोम (Klinefelter’s Syndrome
यह रोग भी अर्द्धसूत्री विभाजन के अनियमितता के कारण होता है। इसमें जाइगोट में गुणसूत्रों की संख्या सामान्य से अधिक (47) हो जाती है। ऐसे जाइगोट से उत्पन्न पुरुषों में स्त्रियोचित लक्षण उत्पन्न हो जाते है। इसमें पुरुषों का वृषण अल्पविकसित एवं स्तन स्त्रियों के समान विकसित हो जाते है। ऐसे पुरुष नपुंसक होते है।
डाउन्स सिंड्रोम या मंगोलिज्म Down’s Syndrome or Mongolism
यह रोग भी अर्द्धसूत्री विभाजन में अनियमितता के कारण होता है। अर्द्धसूत्री विभाजन में आटोसोम का बंटवारा सही प्रकार से नहीं हो पाने पर बनने वाले जाइगोट में गुणसूत्रों की स्थिति असामान्य हो जाती है। इस प्रकार के जाइगोट से विकसित धुण कुछ ही समय पश्चात् मर जाता है और यदि जीवित रहता भी है, तो विकसित होने वाला वयस्क मंद बुद्धि, आँखें टेढ़ी, जीभ मोटी तथा अनियमित शारीरिक ढाँचा का होता है।
पटाऊ सिन्ड्रोम Patau’s Syndrome
इसमें रोगी का ऊपर का ओठ बीच से कट जाता है। तालु में दरार हो जाता है। इस रोग में रोगी मंद बुद्धि, नेत्र रोग आदि से प्रभावित हो सकता है।
अन्य रोग Other Diseases
फाइलेरिया Filaria
यह रोग अनेक प्रकार के सूत्र कृमियों के कारण होता है जिनमें प्रमुख हैं- वऊचेरिया बैक्रोफ्टाई (Wuchereria bancrofti) इस रोग से लसीका वाहिनी और ग्रन्थियाँ फुल जाती हैं, जिसे फाइलेरियोसिस कहा जाता है। मलेरिया की भाँति इस रोग के आरम्भ में भी ज्वर आ जाता है। हेट्रोजन की टिकिया से रोगी को आराम मिलता है। फाइलेरिया के रोगियों के लिए दही, केला तथा अन्य चर्बी और प्रोटीनजनीय खाद्य पदार्थ वर्जित है। इसकी रोकथाम के लिए सर्वप्रथम मच्छरों को नष्ट करना चाहिए। इसके लिए विरंजक चूर्ण, डी. डी. टी. तथा अन्य कीटनाशी दवाओं का उपयोग किया जाना चाहिए।
बेरी-बेरी Beri-Beri
यह रोग भोजन में विटामिन B1 की कमी के कारण होता है। इसकी कमी के कारण उपापचय के दौरान, शरीर में जीव-विष उत्पन्न हो जाता है और फुफ्फुस में सूजन हो जाता है। इस रोग में हृदय की गति बन्द हो जाने की सम्भावना रहती है। इस रोग से बचने के लिए विटामिन B1 युक्त भोजन, जैसे- मटर, शुष्क खमीर, अण्डे की जरदी, दूध आदि का सेवन करना चाहिए।
स्कर्वी Scurvy
यह रोग भोजन में विटामिन C की कमी के कारण उत्पन्न होता है। विटामिन C एस्कॉर्विक अम्ल है, जो स्कर्वी निरोधी होता है। मसूढ़ों से रक्त का स्राव, दाँतों का असमय टूटना, बच्चों के चेहरे और अन्य अंगों में सूजन, पेशाब में रक्त या एल्ब्युमिन का अंश आना आदि इसके लक्षण हैं। विटामिन C टमाटर, पातगोभी, प्याज, नीबू, नारंगी, हरी शाक-सब्जियाँ या ताजे फलों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। प्रतिदिन भोजन में 50-60 मिग्रा. विटामिन C की आवश्यकता होती है।
रिकेट्स या सुखण्डी Rickets
यह रोग विटामिन D की कमी के कारण होता है। विटामिन D की कमी के कारण कैल्सियम और फॉस्फोरस के लवण का उपापचय ठीक से नहीं हो पाता है, जिसके कारण अस्थियों में कैल्सियम संचित नहीं हो पाता है। अत: अस्थियाँ कोमल हो जाती है। बच्चों को प्रतिदिन 0.015-0-02 मिग्रा. और वयस्कों को 0.025 मिग्रा. विटामिन D की आवश्यकता होती है। अतः इसकी पूर्ति के लिए विटामिन D युक्त भोजन ग्रहण करना चाहिए। विटामिन D मछली के तेल, कलेजी, अण्डे की जरदी और दूध में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। रोगी को उपर्युक्त विटामिन D युक्त भोजन देने के अतिरिक्त धूप, पराबैंगनी प्रकाश (Ultraviolet light) और मर्करी वेपर लैम्प में प्रकाश का सेवन कराया जाता है।
मधुमेह Diabetes
यह अग्न्याशय से सम्बन्धित रोग है, जो इन्सुलिन का पर्याप्त स्राव नहीं होने के कारण होता है। इन्सुलिन दो प्रकार का कार्य करता है-
- भोजन का कार्बोहाइड्रेट वाला भाग पचकर शर्करा में परिवर्तित हो जाता है, जो इन्सुलिन की प्रतिक्रिया से खंडित होकर तन्तुओं में मिल जाता है। इसके अभाव में यह शर्करा रक्त में चली आती है।
- इन्सुलिन यकृत और पेशियों में ग्लाइकोजेन संचित करने में मदद करता है। इसका पर्याप्त मात्रा में स्राव नहीं होने पर यकृत में ग्लाइकोजेन का उपयोग होता है और ग्लाइकोजेन की मात्रा धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। ऐसी स्थिति में तन्तुओं में प्रोटीन और संचित वसा शर्करा में परिवर्तित होने लगते हैं। इससे रक्त में शर्करा की मात्रा और बढ़ जाती है। यह शर्करा मूत्र के माध्यम से बाहर निकलने लगती है, जिसे मधुमेह की संज्ञा दी जाती है।
दिल का दौरा Heart Attack
हृदय-धमनियाँ ह्रदय के पेशी-तंतुओं को रक्त पहुँचाती है। हृदय-धमनियों में रक्त जम जाने के कारण, हृदय के पेशी-तन्तुओं को रक्त नहीं मिल पाता है। इससे हृदय में दर्द होता है, जिससे हृदय-शूल कहा जाता है। फलतः हृदय रक्त का संचार नहीं कर पाता है क्योंकि क्षेपक कोष्ठों में आकुंचन और प्रसरण नहीं हो पाता है। इसे हदय गति का रूक जाना या हृदयघात कहा जाता है।
पीत ज्वर Yellow Fever
यह रोग सामान्यतः दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका में होता है। इस रोग के विषाणु जंगली जानवरों के शरीर में आश्रय लेते हैं। हेमोगोगस और इडीस जाति के अनेक मच्छर इस रोग के विषाणु को मनुष्य के शरीर में पहुँचाते हैं। इस रोग में अचानक ज्वर आ जाता है। जोरों का सिर दर्द तथा हड्डियों में दर्द हो जाता है। चेहरा सूज जाता है तथा त्वचा शुष्क हो जाती है। कुछ दिनों के बाद भयानक पीलिया रोग हो जाता है तथा रक्तस्राव, रक्त और पित्त वमन आदि लक्षण प्रकट होते हैं। इस रोग में बहुत अधिक मृत्यु होती है।
कैन्सर Cancer
कोशिकाओं में असामान्य वृद्धि को कैंसर कहते हैं। रेडियोधर्मी पदार्थों जैसे- रेडियम, प्लूटोनियम इत्यादि से हड्डी का कैन्सर होता है। संश्लेषी रंजकों के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले ऐरोमेटिक एमीन से मूत्राशय का कैन्सर होता है। कैन्सर से शरीर के किसी भाग में दर्द न करने वाला पिंड बन जाता है। मुँह से थूक के साथ खून निकलता है। कैन्सर का उपचार एन्टीबायोटिक्स, एल्केलायड्स के प्रयोग से, रेडियोथेरेपी, लेसर किरणों से, शल्य चिकित्सा करके या बोन मेरो (Bone marrow) का प्रत्यार्पण करके किया जाता है।
ऐस्केरिएसिस Ascariasis
इस रोग का कारक ऐस्केरिस लुम्ब्रीकॉइडिस (Ascaris lurnbricoids) नामक निमेटोड है। इस रोग का संक्रमण भोजन के द्वारा होता है। इस रोग में पेट में तेज दर्द होता है। वृद्धि रुक जाती है। फेफड़ों में पहुँचकर ये ज्वर, खांसी तथा ईसोनोफिलिया का कारण बनते है। शरीर में रक्त की कमी हो जाती है। वैयक्तिगत एवं सामाजिक सफाई इस रोग की सर्वश्रेष्ठ उपचार है।
टीनिएसिस Taeniasis
इस रोग का कारक टोनिया सोलियम (Taenia solium) नामक परजीवी है। रोगी व्यक्तियों के आiत में कारक परजीवी के अण्डे उपस्थित होते हैं, जो कि मल के साथ बाहर आ जाते है। सूअर जब इस मल को खाते हैं, तो यह सूअर के आंत में पहुँच जाते है जहाँ से यह सूअर के मांसपेशी में पहुँच जाते है। इस अवस्था में इसे ब्लैडर वर्म (Bladder-worm) कहते हैं। यदि ऐसे संक्रमित सूअर का अधपका मांस कोई व्यक्ति खाता है, तो ब्लैडर वर्म उसकी आँत में पहुँचकर टेपवर्म के रूप में विकसित हो जाता है तथा आँत की दीवार पर चिपक जाता है। प्रायः टीनिएसिस के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ते। केवल कभी-कभी अपच और पेट-दर्द होता है। परन्तु जब कभी आंत में लार्वा उत्पन्न हो जाते हैं और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र, आँखों, फेफड़ों, यकृत व मस्तिष्क में पहुँच जाते हैं, तो रोगी की मृत्यु हो जाती है। केवल भली-भांति पका हुआ सूअर का मांस ही खाना चाहिए। निकोलसन भी रोग के उपचार में प्रयुक्त होती है।
जोड़ों का दर्द Arthritis
इसे गठिया या वात रोग के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग में शरीर के विभिन्न जोड़ों में दर्द रहता है। जोड़ों का दर्द सामान्यतया निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
- गाऊट Gout इस प्रकार के जोड़ों के दर्द में अस्थि संधियों में सिट्रिक अम्ल के क्रिस्टल जमा हो जाते हैं, जिससे संधियों में दर्द महसूस होता है।
- आस्टियोआर्थराइटिस Osteoarthritis इस प्रकार का गठिया अस्थियों के जोड़ों के कार्टिलेज के ह्रासित हो जाने से होता है। इसके कारण जोड़ों का लचीलापन समाप्त हो जाता है तथा वे कड़े हो जाते हैं। यह रोग सामान्यतया अधिक आयु के लोगों में होता है।
- रुमेटाइड अर्थराइटिस Rrheumatoid Arthritis साइनोसिल झिल्ली में सूजन आने तथा कार्टिलेज के ऊपर सख्त ऊतक उत्पन्न हो जाने से इस प्रकार का गठिया उत्पन्न होता है। इस रोग के फलस्वरूप भी जोड़ों में दर्द रहता है, तथा चलने-फिरने में असुविधा होती है।
हाइपरटेंशन Hypertension
इसका मुख्य कारण उच्च धमनी दाब है, जो छोटी धमनी में सिकुड़न उत्पन्न होने के कारण होता है। छोटी धमनी में सिकुड़न के कई कारण होते को आराम व नोंद लेना अत्यधिक फायदेमंद होता है।
न्यूरोसिस Neurosis
इस रोग का कारण उच्च तंत्रिका तंत्र या मस्तिष्क के समक्ष किसी असामान्य स्थिति का आ जाना है। इससे हृदयवाहिका तंत्र की क्रियाविधि असंतुलित हो जाती है। रोग में रोगी को नीद न आना व चिड़चिड़ा हो जाना प्रमुख है।
एथेरोस्क्लेरोसिस Atherosclerosis
यह रोग मुख्यतया धमनी की दीवारों में कोलेस्ट्रॉल के जमा होने से होता है। इस स्थिति में धमनियों की दीवारें सख्त हो जाती है तथा इनमें गिल्टियाँ बनने या रक्त का थक्का बनने की संभावना बढ़ जाती है। इसके परिणामस्वरूप रुधिर वाहिनियों के ल्यूमेन बंद हो जाते हैं, जिसके कारण हृदयाघात की संभावना बढ़ जाती है।
पक्षाघात या लकवा Hemiplegia
इस रोग में कुछ ही मिनटों में शरीर के आधे भाग को लकवा मार जाता है। जहाँ पक्षाघात होता है वहाँ की तंत्रिकाएँ निष्क्रिय हो जाती है। इसका कारण अधिक रक्त-दाब के कारण मस्तिष्क की कोई धमनी का फट जाना अथवा मस्तिष्क को अपर्याप्त रक्त की आपूर्ति होना है।
एलर्जी Allergy
कुछ वस्तु जैसे-धूल, धुआँ, रसायन, कपड़ा, सर्दी, किन्हीं विशेष व्यक्तियों के लिए हानिकारक हो जाते हैं और उनके शरीर में विपरीत क्रिया होने लगती है, जिससे अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं। खुजली, फोड़ा, फुन्सी, शरीर में सूजन आ जाना, काला दाग, एक्जिमा आदि एलर्जी के उदाहरण हैं।
साइजोफ्रेनिया Schizophrenia
यह एक मानसिक रोग है जो प्रायः युवा वर्ग में होता है। ऐसा रोगी कल्पना को ही सत्य समझता है, वास्तविकता को नहीं। ऐसे रोगी आलसी, अलगावहीन, आवेशीन होते हैं। विद्युत् आक्षेप चिकित्सा इसमें काफी सहायक होती है।
मिर्गी Epilepsy
इसे अपस्मार रोग कहते हैं। यह मस्तिष्क के आंतरिक रोगों के कारण होती है। इस रोग में जब दौरा पड़ता है, तो मुँह से झाग निकलता है और मल पेशाब भी निकलता है।
डिफ्लोपिया Diplopia
यह रोग ऑख की मांसपेशियों के पक्षाघात (Paralysis) के कारण होती है।
बर्ड फ्लू Bird Flu
बर्ड फ्लू रोग पहली बार 1918 ई. में प्रकाश में आया। इस रोग का मुख्य विषाणु H5N1 है। यह रोग प्रायः मुर्गियों तथा प्रवासी पक्षियों के माध्यम से प्रसारित होता है। वैश्वीकरण के कारण पिछले लगभग 8-10 वर्षों में यह रोग कई बार दुनिया भर में दहशत फैला चुका है।
सार्स SARs
सार्स का पूर्ण रूप सोवियर एक्यूट रिस्पेरेटरी सिन्ड्रोम है। इस बीमारी के लक्षण फ्लू (Flu) से काफी मिलते-जुलते हैं। यह बीमारी 2002-03 में विश्व के कई देशों में एक साथ फैली थी। इस बीमारी के रोकथाम के हेतु अभी कोई कारगर औषधि उपलब्ध नहीं है।
जापानी इन्सेफेलाइटिस Japanese Encephalitis
यह रोग क्यूलेक्स प्रजाति के मच्छड़ से फैलता है। इस रोग का उद्गम जापान में हुआ। इसके पश्चात् कई एशियाई देश से होते हुए यह रोग कई दशक पहले भारत पहुँचा। इस विषाणु का संक्रमण मच्छड़ के काटने से होता है लेकिन सूअर को भी इस रोग का वाहक माना जाता है। क्यूलेक्स प्रजाति का मच्छड़ धान के खेतों में पनपता है। इस कारण धान क्षेत्र में हर वर्ष सैकड़ों बच्चे इस रोग की चपेट में आकर अपनी जान गॅवा बैठते हैं।
स्वाइन फ्लू Swine Flu
यह भी एक संक्रामक रोग है, जिसका प्रसार काफी तेजी से होता है। इस रोग का उद्भव उत्तर अमेरिकी देश मैक्सिको में हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार यह संक्रामक रोग अब तक 33 देशों में फैल चुका है। विश्व के प्रायः सभी देश इस संक्रामक रोग के प्रति काफी सतर्कता बरत रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन में स्वाइन फ्लू को एनफ्लूएन्जा H1N1 नाम दिया है। बार-बार उल्टी आना, दस्त होना, अचानक तेज बुखार, शरीर में दर्द, और थकान का अनुभव होना और खाँसी आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। इस रोग से बचाव के लिए कोई विशेष टीका या दवा नहीं है। शुरुआती दौर में इस रोग का पता लगने पर इसकी एकमात्र औषधि ओसेल्टामिविर काफी कारगर है। मैक्सिको इस रोग से सबसे ज्यादा प्रभावित है।