1. ब्रह्माजी का मन्दिर, पुष्कर (अजमेर)
- पुष्कर राजस्थान में विख्यात तीर्थस्थान है जहाँ विश्व का एकमात्र ब्रह्मा कामन्दिर है एवं प्रतिवर्ष ‘पुष्कर मेला’ लगता है।
- यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को पुष्कर मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक भी आते हैं। यह कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रारम्भ हो कार्तिक पूर्णिमा तक पाँच दिन तक आयोजित किया जाता है। मेले का समय पूर्ण चन्द्रमा पक्ष, अक्टूबर–नवम्बर का होता है। भक्तगण एवं पर्यटक श्री रंग जी एवं अन्य मंदिरों के दर्शन कर आत्मिक लाभ प्राप्त करते हैं।
- सन् 1911 ईस्वी बाद अंग्रेज़ी शासनकाल में महारानी मेरी ने यहां घाट बनवाया था । इसी स्थान पर महात्मा गांधी की अस्थियां प्रवाहित की गईं, तब से इसे गांधी घाट भी कहा जाता है।
- भगवान ब्रह्मा ने जगत भलाई के लिए यज्ञ करना चाहा। यज्ञ के लिए ब्रह्मा यहां पहुंचे। लेकिन उनकी पत्नी सावित्री वक्त पर नहीं पहुंच पाईं। यज्ञ का समय निकल रहा था। लिहाजा ब्रह्मा जी ने एक स्थानीय ग्वाल बाला से शादी कर ली और यज्ञ में बैठ गए। सरस्वती जी ने जब अपने स्थान पर दूसरेी स्त्री को बैठे देखा तो वे क्रोध से भर गई और ब्रह्मा जी को श्राप देते हुए कहा कि आपकी धरती पर कहीं भी और कभी भी पूजा नहीं होगी। जब उनका क्रोध थोड़ा शांत हुआ तो देवी-देवताओं की बात का मान रखते हुए मां सरस्वती ने कहा कि ब्रह्मा जी का केवल एक ही मंदिर होगा जो पुष्कर में स्थित होगा और वो केवल यहीं पर पूजे जाएंगे। उसी दिन से पुष्कर धाम ब्रह्मा जी का घर बन गया।
2. खाटूश्यामजी मन्दिर, सीकर
- खाटूश्यामजी, भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में एक प्रसिद्ध कस्बा है, जहाँ पर बाबा श्याम का जग विख्यात मन्दिर है।
- प्रमुख देवता: भगवान कृष्ण
- प्रमुख उत्सव: फाल्गुन महोत्सव
- यह मंदिर फरवरी और माच्र महीनों में लगने वाले खाटूश्यामजी मेले के लिए प्रसिद्ध है। भारतीय कैलेंडर के अनुसार फाल्गुन में सुदी दशमी और द्वादशी के बीच यहाँ तीन दिवसीय वार्षिक मेला लगता है।
- खाटू श्याम बर्बरीक के रूप है। श्रीकृष्ण ने ही बर्बरीक को खाटूश्यामजी नाम दिया था। भगवान श्रीकृष्ण के कलयुगी अवतार खाटू श्यामजी खाटू में विराजित हैं। वीर घटोत्कच और मौरवी को एक पुत्ररतन की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया
- कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि जैसे जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे।
3. हर्षनाथ मंदिर, सीकर
- हर्षनाथ राजस्थान राज्य में सीकर ज़िले के निकट स्थित एक ऐतिहासिक मंदिर है। वर्तमान में हर्षनाथ नामक ग्राम हर्षगिरि पहाड़ी की तलहटी में बसा हुआ है और सीकर से आठ मील दक्षिण-पूर्व में हैं। हर्षगिरि ग्राम के पास हर्षगिरि नामक पहाड़ी है, जो 3,000 फुट ऊँची है और इस पर लगभग 900 वर्ष से अधिक प्राचीन मंदिरों के खण्डहर हैं।
- इन मंदिरों में एक काले पत्थर पर उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुआ है, जो शिवस्तुति से प्रारम्भ होता है और जो पौराणिक कथा के रूप में लिखा गया है लेख में हर्षगिरि और मन्दिर का वर्णन है और इसमें कहा गया है कि मन्दिर के निर्माण का कार्य आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, सोमवार 1030 विक्रम सम्वत् (956 ई.) को प्रार[[म्भ होकर विग्रहराज चौहान के समय में 1030 विक्रम सम्वत (973 ई.) को पूरा हुआ था।
- चाहमान शासकों के कुल देवता – शिव हर्षनाथ का यह मंदिर हर्षगिरी पर स्थित हैं तथा महामेरु शैली में निर्मित हैं। विक्रम संवत 1030 (973 ई.) के एक अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण चाहमन शासक विग्रहराज प्रथम के शासनकाल मे एक शैव संत भावरक्त द्वारा करवाया गया था।
- वर्तमान खंडित अवस्था में भी यह मन्दिर अपनी स्थापत्य विशिष्टताओं एवं देवी-देवताओं की प्रतिमाओं सहित नर्तकों, संगीतज्ञों, योद्धाओं व कीर्तिमुख के प्रारूप वाली सजावटी दृश्यावलियों के उत्कृष्ट शिल्प कौशल हेतु उल्लेखनीय है।
- स्थापत्य शैली: महामेरु शैली, वास्तु शास्त्र एवं पंचरात्र शास्त्र
4. जीण माता मंदिर, सीकर
- जीण माता राजस्थान के सीकर जिले में स्थित धार्मिक महत्त्व का एक गाँव है। यह सीकर से 29किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।
- यहाँ पर जीणमाता (शक्ति की देवी) एक प्राचीन मन्दिर स्थित है। जीणमाता का यह पवित्र मंदिर सैकड़ों वर्ष पुराना माना जाता है।
- लोक मान्यताओं के अनुसार जीण का जन्म चौहान परिवार में हुआ। उनके भाई का नाम हर्ष था जो बहुत खुशी से रहते थे। एक बार जीण का अपनी भाभी के साथ विवाद हो गया और इसी विवाद के चलते जीन और हर्ष में नाराजगी हो गयी। इसके बाद जीण आरावली के ‘काजल शिखर’ पर पहुँच कर तपस्या करने लगीं।
- मान्यताओं के अनुसार इसी प्रभाव से वो बाद में देवी रूप में परिवर्तित हुई। यह मंदिर चूना पत्थर और संगमरमर से बना हुआ है। यह मंदिर आठवीं सदी में निर्मित हुआ था।
5. कैला देवी मंदिर, करौली
- कैला देवी मंदिर राजस्थान के करौली से लगभग 25 किमी दूर कैला गाँव में ख्याति प्राप्त देवी कैला देवी मंदिर भक्तों के लिए पूजनीय है।
- त्रिकूट मंदिर की मनोरम पहाड़ियों की तलहटी में स्थित इस मंदिर का निर्माण राजा भोमपाल ने 1600 ई. में करवाया था।
- माना जाता है कि भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव और देवकी को जेल में डालकर जिस कन्या योगमाया का वध कंस ने करना चाहा था, वह योगमाया कैला देवी के रूप में इस मंदिर में विराज मान है। एक अन्य मान्यता के अनुसार पुरातन काल में त्रिकूट पर्वत के आसपास का इलाका घने वन से घिरा हुआ था। इस इलाके में नरकासुर नामक आतातायी राक्षस रहता था। नरकासुर ने आसपास के इलाके में काफ़ी आतंक कायम कर रखा था। उसके अत्याचारों से आम जनता दु:खी थी। परेशान जनता ने तब माँ दुर्गा की पूजा की और उन्हें यहाँ अवतरित होकर उनकी रक्षा करने की गुहार की। बताया जाता है कि आम जनता के दुःख निवारण हेतु माँ कैला देवी ने इस स्थान पर अवतरित होकर नरकासुर का वध किया और अपने भक्तों को भयमुक्त किया। तभी से भक्तगण उन्हें माँ दुर्गा का अवतार मानकर उनकी पूजा करते हुए आ रहे हैं।
- मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है जिसमें कैला (दुर्गा देवी) एवं चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ हैं। कैलादेवी की आठ भुजाऐं एवं सिंह पर सवारी करते हुए बताया है।
- यहाँ क्षेत्रीय लांगुरिया के गीत विशेष रूप से गाये जाते है। जिसमें लांगुरिया के माध्यम से कैलादेवी को अपनी भक्ति-भाव प्रदर्शित करते है।
- कैलादेवी शक्तिपीठ आने वाले श्रद्वालुओं में मां कैला के साथ लांगुरिया भगत को पूजने की भी परंपरा रही है।लांगुरिया को मां कैला का अनन्य भक्त बताया जाता है। इसका मंदिर मां की मूर्ति के ठीक सामने विराजमान है।
- यहाँ प्रतिवर्ष मार्च – अप्रॅल माह में एक बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले में राजस्थान के अलावा दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश के तीर्थ यात्री आते है।
6. श्री सांवलिया सेठ मंदिर, मण्डफिया
- श्री सांवलिया सेठ मंदिर भगवान श्री कृष्ण को समर्पित एक प्रमुख मंदिर है जो चित्तौड़गढ़ से 40 किमी दूर मण्डफिया ग्राम में स्थित है।
- श्री सांवलिया सेठ मंदिर में भगवान कृष्ण की काले रंग की प्रतिमा है, इन्हें साँवरिया सेठ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
- किवदंतियों के अनुसार सन 1840 मे भोलराम गुर्जर नाम के ग्वाले को एक सपना आया की भादसोड़ा – बागूंड के छापर मे 3 मूर्तिया ज़मीन मे दबी हुई है. जब उस जगह पर खुदाई की गयी तो भोलराम का सपना सही निकला और वहा से 3 एक जैसे मूर्तिया निकली. सभी मूर्तिया बहुत ही मनोहारी थी.
- इन मूर्तियो मे साँवले रूप मे श्री कृष्ण भगवान बाँसुरी बजा रहे है. इनमे से एक मूर्ति मण्डपिया ग्राम ले जायी गयी और वहा पर मंदिर बनाया गया । दूसरी मूर्ति भादसोड़ा ग्राम ले जायी गयी और वहा पर भी मंदिर बनाया गया । तीसरी मूर्ति को यही प्राकट्य स्थल पर ही मंदिर बना कर स्थापित की गयी । कालांतर में तीनो मंदिरों की ख्याति भी दूर-दूर तक फेली। आज भी दूर-दूर से हजारों यात्री प्रति वर्ष दर्शन करने आते हैं।
7. सालासर बालाजी, चूरू
- सालासर बालाजी भगवान हनुमान के भक्तों के लिए एक धार्मिक स्थल है। यह राजस्थान के चूरू जिले में स्थित है।
- श्री हनुमान जयंती का उत्सव हर साल चैत्र शुक्ल चतुर्दशी और पूर्णिमा को मनाया जाता है। श्री हनुमान जयंती के इस अवसर पर भारत के हर कोने से लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। अश्विन शुक्ल चतुर्दशी और पूर्णिमा को मेलों का आयोजन किया जाता है और बड़ी संख्या में भक्त इन मेलों में भी पहुंचते हैं।
- किद्वंतियों के अनुसार श्रावण शुक्ल नवमी, संवत् 1811- शनिवार को नागौर जिले में असोटा गांव का एक गिन्थाला-जाट किसान अपने खेत को जोत रहा तब उन्हें मिट्टी में सनी हुई दो मूर्तियां मिलीं। जब किसान की पत्नी ने मूर्ति को साफ़ किया तो यह मूर्ति बालाजी भगवान श्री हनुमान की थी। उन्होंने समर्पण के साथ अपने सिर झुकाए और भगवान बालाजी की पूजा की। बाद में इनमें से एक मूर्ति को चुरू जिले के सालासर भेजा गया एवं दूसरी मूर्ति को इस स्थान से 25 किलोमीटर दूर पाबोलाम (भरतगढ़) में स्थापित कर दिया गया।
8. करणी माता, देशनोक
- मां करणी देवी का विख्यात मंदिर राजस्थान के बीकानेर से लगभग 30 किलोमीटर दूर जोधपुर रोड पर गांव देशनोक की सीमा में स्थित है। यह भी एक तीरथ धाम है, लेकिन इसे चूहे वाले मंदिर के नाम से भी देश और दुनिया के लोग जानते हैं।
- अनेक श्रद्धालुओं का मत है कि करणी देवी साक्षात मां जगदम्बा की अवतार थीं। अब से लगभग साढ़े छह सौ वर्ष पूर्व जिस स्थान पर यह भव्य मंदिर है, वहां एक गुफा में रहकर मां अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना किया करती थीं। यह गुफा आज भी मंदिर परिसर में स्थित है।
- मां के ज्योर्तिलीन होने पर उनकी इच्छानुसार उनकी मूर्ति की इस गुफा में स्थापना की गई। बताते हैं कि मां करणी के आशीर्वाद से ही बीकानेर और जोधपुर राज्य की स्थापना हुई थी।
- मंदिर में चूहों की बहुतायत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पैदल चलने के लिए अपना अगला कदम उठाकर नहीं, बल्कि जमीन पर घसीटते हुए आगे रखना होता है। लोग इसी तरह कदमों को घसीटते हुए करणी मां की मूर्ति के सामने पहुंचते हैं। इन चूहों की उपस्थिति की वजह से ही श्री करणी देवी का यह मंदिर चूहों वाले मंदिर के नाम से भी विख्यात है।
- मान्यता के अनुसार संवत 1595 की चैत्र शुक्ल नवमी गुरुवार को श्री करणी ज्योर्तिलीन हुईं। संवत 1595 की चैत्र शुक्ला 14 से यहां श्री करणी माता जी की सेवा पूजा होती चली आ रही है।
- वर्ष में दो बार नवरात्रों पर चैत्र व आश्विन माह में इस मंदिर पर विशाल मेला भी लगता है। तब भारी संख्या में लोग यहां पहुंचकर मनौतियां मनाते हैं।
9. एकलिंगजी मंदिर
- एकलिंगजी मंदिर उदयपुर जिले के कैलाशपुरी गांव में NH-8 पर स्थित एक प्राचीन मंदिर है।
- एकलिंगजी को शिव का ही एक रुप माना जाता है। माना जाता है कि एकलिंगजी ही मेवाड़ के शासक हैं। राजा तो उनके प्रतिनिधि के रुप में यहां शासन करता था।
- इस मंदिर का निर्माण बप्पाी रावल ने 8वीं शताब्दीत में करवाया था। बाद में यह मंदिर टूटा और पुन: बना।
- वर्तमान मंदिर का निर्माण महाराणा रायमल ने 15वीं शताब्दीत में करवाया था। इस परिसर में कुल 108 मंदिर हैं।
- मुख्यत मंदिर में एकलिंगजी की चार सिरों वाली मूर्त्ति स्थावपित है।
10. त्रिपुर सुंदरी मंदिर, बांसवाड़ा
- प्रमुख आराध्य: त्रिपुर सुंदरी (काली माँ)
- स्थापत्य शैली: हिन्दू शैली
- निर्माण तिथि (वर्तमान संरचना): तीसरी शती से पूर्व
- निर्माता: पांचाल जाति के चांदा भाई लुहार
- राजस्थान में बांसवाड़ा से लगभग 14 किलोमीटर दूर तलवाड़ा ग्राम से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर ऊंची रौल श्रृखलाओं के नीचे सघन हरियाली की गोद में उमराई के छोटे से ग्राम में माताबाढ़ी में प्रतिष्ठित है मां त्रिपुरा सुंदरी। कहा जाता है कि मंदिर के आस-पास पहले कभी तीन दुर्ग थे। शक्तिपुरी, शिवपुरी तथा विष्णुपुरी नामक इन तीन पुरियों में स्थित होने के कारण देवी का नाम त्रिपुरा सुन्दरी पड़ा
- तीनों पुरियों में स्थित देवी त्रिपुरा के गर्भगृह में देवी की विविध आयुध से युक्त अठारह भुजाओं वाली श्यामवर्णी भव्य तेजयुक्त आकर्षक मूर्ति है। इसके प्रभामण्डल में नौ-दस छोटी मूर्तियां है जिन्हें दस महाविद्या अथवा नव दुर्गा कहा जाता है।
- यह स्थान कितना प्राचीन है प्रमाणित नहीं है। वैसे देवी मां की पीठ का अस्तित्व यहां तीसरी शती से पूर्व का माना गया है। गुजरात, मालवा और मारवाड़ के शासक त्रिपुरा सुन्दरी के उपासक थे। गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह की यह इष्ट देवी रही।
11. श्रीनाथजी मन्दिर, नाथद्वारा
- श्रीनाथजी का तकरीबन 337 वर्ष पुराना मन्दिर वैष्णव सम्प्रदाय की प्रधान (प्रमुख) पीठ है। यहाँ नंदनंदन आनन्दकंद श्रीनाथजी का भव्य मन्दिर है जो करोडों वैष्णवो की आस्था का प्रमुख स्थल है, प्रतिवर्ष यहाँ देश-विदेश से लाखों वैष्णव श्रृद्धालु आते हैं जो यहाँ के प्रमुख उत्सवों का आनन्द उठा भावविभोर हो जाते हैं।
- भारत के मुगलकालीन शासक बाबर से लेकर औरंगजेब तक का इतिहास पुष्टि संग्रदाय के इतिहास के सामानान्तर यात्रा करता रहा। सम्राट अकबर ने पुष्टि संप्रदाय की भावनाओं को स्वीकार किया था। गुसाईं श्री विट्ठलनाथजी के समय सम्राट की बेगम बीबी ताज तो श्रीनाथजी की परम भक्त थी, तथा तानसेन, बीरबल, टोडरमल तक पुष्टि भक्ति मार्ग के उपासक रहे थे।
- श्रीनाथजी को गिरिराज के मन्दिर से पधराकर सिहाड़ के मन्दिर में बिराजमान करने तक दो वर्ष चार माह सात दिन का समय लगा था। श्रीनाथजी के नाम के कारण ही मेवाड़ का वह अप्रसिद्ध सिहाड़ ग्राम अब श्रीनाथद्वारा नाम से भारत वर्ष में सुविख्यात है। संवत् 1728 कार्तिक माह में श्रीनाथजी सिहाड़ पहुँचें वहा मन्दिर बन जाने पर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी शनिवार को उनका पाटोत्सव किया गया।
12. राजस्थान के अन्य प्रमुख हिन्दू मन्दिर
- नीमच माता मंदिर, उदयपुर
- जग मंदिर, उदयपुर
- बिड़ला मन्दिर, जयपुर
- शिला देवी मंदिर, जयपुर
- सुनधा माता मंदिर, जालौर
- तनोत माता, जैसलमेर
- चामुंडा माता मंदिर, जोधपुर
- रानी सती मंदिर, झुन्झुनू
- देव धाम जोधपुरिया, टोंक
- मेहंदीपुर बालाजी मंदिर, दौसा
- दधिमती माता मंदिर, नागौर
- शीतला माता मंदिर, भीलवाड़ा
- सवाई भोज मंदिर, भीलवाड़ा
- रघुनाथ मंदिर, सीकर
13 राजस्थान के मंदिरों का वास्तुशिल्प
- राजस्थानी मन्दिर वास्तु शिल्प के उद्भव का स्रोत वे छोटे-छोटे मन्दिर रहे हैं जिन्हें प्रारम्भ में लोगों की धार्मिक अनुभूतियों को प्रोत्साहित करने के लिए बनवाया गया था। प्रारम्भ में बने मन्दिरों में केवल एक कक्ष होता था जिसके साथ दालान जुड़ा रहता था, चौथी और पांचवी सदियां स्थापत्य शिल्प के इतिहास में स्वर्ण युग की अगुआ रही है जब रुप सज्जा और धार्मिक निष्ठा संयोग ने भक्तों पर प्रभाव डाला।
- स्थापत्य शिल्प के क्षेत्र में राजस्थान ने स्वयं अपनी एक अत्युत्तम शैली को जन्म दिया जो ओसिया, किराडु, हर्ष, अजमेर, आबू, चन्द्रावती, बाडौली, गंगोधरा, मेनाल, चित्तौड़, जालौर और बागेंहरा के रमणीक मन्दिरों में दृष्टव्य है। इन संरचनाओं में एकरुपता दृष्टिगोचर होती है तथापि इन पर क्षेत्रीय प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सका जो मंदिरों, गर्भग्रहों, शिखरों और छतों के अलंकरणों में दृष्टव्य है।
- चित्तौड़ग के समीप नागरी में प्राप्त 481 ई. के एक शिलालेख से राजस्थान में प्रारम्भिक वैष्णव मन्दिरों का प्रभाव ज्ञात होता है, जहां तक राजस्थान का सम्बन्ध है, पहली से सातवीं सदी तक मेवाड़ की भूमि वैष्णवों का मुक्य गढ़ रहा था जहां के भक्तों की कृष्ण और बलराम पर अनन्य श्रृद्धा थी। सातवीं सदी के पश्चात् निर्मित मन्दिरों पर तांत्रिक प्रभाव पड़े बिना न रह सका जो वैष्णव मन्दिरों की सज्जा में स्पष्टत: परिलक्षित होने लगा था।
- अलवर के तसाई शिलालेख के अनुसार बलराम के साथ-साथ वारुणी की भी पूजा होती थी। दसवीं ग्याहरवीं सदी के जगत और रामगढ़ के मन्दिरों अन्य उदाहरण हैं जिनमें तांत्रिक अभ्यास का ज्ञान होता था। राजस्थान में प्रतिहारों का युग उन मन्दिरों के निर्माण के लिए उल्लेखनीय है जिनमें सूर्य और शिव की मूर्तियां प्रतिष्ठित की गई हैं। भीनमाल, ओसिया, मण्डोर और हर्षनाथ के मन्दिर जिनमें भगवान् सूर्य प्रतिष्ठित हैं, राजस्थानी स्थापत्य शिल्प की मनोहारी कृतियां हैं।
- प्रतिहार में कोई निश्चित देवी-देवता नहीं था। कुछ लोग वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे तो कुछ शैव सम्प्रदाय को मानने वाले थे।
14 राजस्थान के मंदिरों का वास्तुशिल्प
- शिव, विष्णु और सूर्य निर्मित देवताओं के अतिरिक्त राजस्थान के मन्दिरों में शक्ति के साथ-साथ भगवती, दुर्गा की प्रतिष्ठा की गयी थी। इनमें जगत, मण्डोर, जयपुर और पुष्कर का ब्रह्मा मन्दिर उल्लेखनीय है।
- मध्य युग में मन्दिर वास्तुशिल्प उत्तरी और दक्षिण शैलियों में विभाजित हो गया था। आधार रचना में समानता के बावजूद अन्य भागों के निर्माण में अपने-अपने लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे थे। राजस्थान में मन्दिरों पर दक्षिणी स्थापत्य शैली का प्रभाव पड़े बिना न रह सका। उत्तर के मन्दिरों पर दक्षिणी स्थापत्य शैली का प्रभाव पड़े बिना न रह सका, इनके शिखरों और मण्डलों की निर्माण रचना दक्षिण से भिन्न रही है।
- दसवीं तथा ग्याहरवीं सदियों में रामगढ़ और जगत के मन्दिरों का निर्माण मन्दिर स्थापत्य कला में एक नूतन दिशा का उद्घोष रहा। राग विषयक दृश्यों के चित्रण को भक्तों में सुखपूर्वक जीवनयापन के लिए ज्ञान के रुप में प्रसारित करना बताया जाता है। इन मिथुन मूर्तियों की नक्काशी का अन्य कारण सांसरिक सुखों और भोगों से विरक्त रहने के लिए भी हो सकता है। इस काल में शिव समप्रदाय का भी प्रभुत्व रहा था।
- उत्तरी भारत के जैन मन्दिरों में ग्याहरवीं-तेरहवीं सदी में बने आबू के जैन मन्दिर अपनी विशिष्ठ शैली वाले हैं। इनकी रचना मकराना के सफेद संगमरमर से हुई है और ये प्रभावोत्पादक अलंकृत स्तम्भों से शोभायुक्त है।
- बाहरवीं सदी से लेकर तेहरवीं सदी का काल राजपूत राजाओं में आन्तरिक वैमनस्य और दुर्जेय मुगलों के साथ-साथ संघर्ष का कथानक है। इसी परिस्थिति में राजा और प्रजा दोनों के लिए सुन्दर प्रसादों का निर्माण करवा पाना सहज नहीं था।
- वर्तमान मन्दिरों को भी मुसलमान मूर्ति-भंजनों ने बहुत क्षिति पहुंचाई। इसका एक कारण उनकी वह अंधी ईर्ष्या भी थी जिसके द्वारा वे अपनी स्थापत्य कला को श्रेष्ठता की स्थिति में पहुंचाना चाहते थे। उनके हाथों विनाश से शायद ही कोई मन्दिर बच पाया हो। चित्तौड़गढ़, रणकपुर और राजस्थान के अन्य मंदिर आज भी उस धार्मिक प्रतिशोध की शोकमयी कहानी कहते हैं।
- मुसलमानी काल में उत्पीड़न के होते हुए भी धार्मिक उत्साह में कोई कमी नहीं आई। अंग्रेजों के राज्य में मन्दिर बनवाने वालों को न तो तंग किया गया, न उन्हें किसी प्रकार का प्रोत्साहन ही प्राप्त हुआ।
राजस्थान GK नोट्स