- राजस्थानी साहित्य की संपूर्ण भारतीय साहित्य में अपनी एक अलग पहचान है। राजस्थानी भाषा का प्राचीन साहित्य अपनी विशालता एवं अगाधता मे इस भाषा की गरिमा, प्रौढ़ता एवं जीवन्तता का सूचक है।
- राजस्थानी में पर्याप्त प्राचीन साहित्य उपलब्ध है। जैन यति रामसिंह तथा हेमचंद्राचार्य के दोहे राजस्थानी गुजराती के अपभ्रंश कालीन रूप का परिचय देते हैं। इसके बाद भी पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में जैन कवियों के फागु, रास तथा चर्चरी काव्यों के अतिरिक्त अनेक गद्य कृतियाँ उपलब्ध हैं।
- प्रसिद्ध गुजराती काव्य पद्मनाभकविकृत “कान्हडदे प्रबंध” वस्तुत: पुरानी पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी की ही कृति है।
- पुरानी राजस्थानी की पश्चिमी विभाषा का वैज्ञानिक अध्ययन डॉ॰ एल. पी. तेस्सितोरी ने “इंडियन एंटिववेरी” (1914-16) में प्रस्तुत किया था, जो आज भी राजस्थानी भाषाशास्त्र का अकेला प्रामाणि ग्रंथ है।
- पश्चिमी राजस्थानी का मध्ययुगीन साहित्य समृद्ध है। राजधानी की ही एक कृत्रिम साहित्यिक शैली डिंगल है, जिसमें पर्याप्त चारण-साहित्य उपलब्ध है
- भाषागत विकेंद्रीकरण की नीति ने राजस्थानी भाषाभाषी जनता में भी भाषा संबंधी चेतना पैदा कर दी है और इधर राजस्थानी में आधुनिक साहित्यिक रचनाएँ होने लगी है।
- राजस्थानी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इसके अतिरिक्त यहाँ के पुराने लोगों में अब भी एक भिन्न लिपि प्रचलित है, जिसे “बाण्याँ वाटी” कहा जाता है। इस लिपि में प्राय: मात्रा-चिह्र नहीं दिए जाते।
- राजस्थानी भाषा का साहित्यिक रूप डिंगल है और डिंगल साहित्य एक सम्रध साहित्य है डिंगल साहित्य में अनेको ग्रन्थ है इसका विकास 7-8 वीं सदी से शुरू हुआ था, डिंगल को चारण सहित्य भी कहते है क्यूंकि मध्य काल में मुख्यत इसके रचनाकार चारण जाति से ही थे
- राजस्थानी साहित्य के निर्माणकर्ताओं को शैलीगत एवं विषयगत भिन्नताओं के कारण पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है-
- 1. जैन साहित्य
- 2. चारण, साहित्य
- 3. ब्राह्यण साहित्य
- 4. संत साहित्य
- 5. लोक साहित्य
राजस्थान GK नोट्स