- मेवाड़ शैली राजस्थानी जनजीवन व धर्म का जीता जागता स्वरूप प्रस्तुत करती है।
- इतिहासवेत्ता तारकनाथ ने 7वीं शताब्दी में मारवाड़ के प्रसिद्ध चित्रकार श्रीरंगधर को इसका संस्थापक माना है लेकिन उनके तत्कालीन चित्र उपलब्ध नहीं है।
- ‘रागमाला’ के चित्र 16वीं शताब्दी में महाराणा प्रताप की राजधानी चावण्ड में बनाये गये, जिसमें लोककला का प्रभाव तथा मेवाड़ शैली के स्वरूप चित्रित हैं। रागमाला चित्रावली दिल्ली के संग्रहालय में सुरक्षित है।
- कुम्भलगढ़ के दुर्ग तथा चित्तौड़गढ़ के भवनों में कुछ भित्ति चित्र भी अस्पष्ट व धुंधले रूप में देखने को मिलते हैं।
- वल्लभ संप्रदाय के राजस्थान में प्रभावी हो जाने के कारण राधा-कृष्ण की लीलाएँ मेवाड़ शैली की मुख्य विषयवस्तु हैं।
- 17वीं शताब्दी के मध्य में इस शैली का एक स्वतंत्र स्वरूप रहा। मानवाकृतियों में अण्डकार चेहरे, लम्बी नुकीली नासिका, मीन नयन तथा आकृतियाँ छोटे क़द की हैं। पुरुषों के वस्त्रों में जामा, पटका तथा पगड़ी और स्त्रियों ने चोली, पारदर्शी ओढ़नी, बूटेदार अथवा सादा लहंगा पहना है। बाहों तथा कमर में काले फुंदने अंकित हैं। प्राकृतिक द्दश्य चित्रण अलंकृत हैं।
- मेवाड़ शैली 18 वीं से लेकर 19 वीं सदी तक अस्तित्व में रही, जिसमें अनेक कलाकृतियाँ चित्रित की गई। इन कलाकृतियों में शासक के जीवन और व्यक्तित्व का अधिक चित्रण किया जाने लगा, लेकिन धार्मिक विषय लोकप्रिय बने रहे।
- महाराणा अमरसिंह के राज्यकाल में इसका रूप निर्धारण होकर विकसित होता गया। जितने विषयों पर इस शैली में चित्र बने,उतने चित्र अन्य किसी शैली में नहीं बने।
- इसकी विशेषता- मीन नेत्र,लम्बी नासिका,छोटी ठोड़ी,लाल एवं पीले रंग का अधिक प्रभाव,नायक के कान एवं चिबुक के नीचे गहरे रंग का प्रयोग।
- इसके प्रमुख चित्रकार रहे हैं -साहिबदीन,मनोहर,गंगाराम,कृपाराम,जगन्नाथ आदि हैं।
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